Thursday, 5 March 2020

अल्फ़ाज़

मेरे मशहूर ना होने का मुझे कोई ग़म ना होगा |
सितारे छा जाएं भले  पूरे आसमां पर ,
अँधेरा मगर कम ना होगा
मुझ में हजारों दोष हैं बेशक़ ,
मेरे जैसा मगर फिर कोई ना होगा ||
||

मैं क्या लिखता हूँ, वो ना समझते हैं ना महसूस करते हैं
मेरे हर अल्फ़ाज़ पर मूक हो जाने वाले
यार मेरे ...मोहब्बत भी मुझसे क्या खूब करते हैं
||

गरीबों की बस्ती में आमदनी के पर्चे बाँट रहे थे
वो बस वक़्त काट रहे थे
ये वो मुर्दे थे... ,जो ज़िन्दगी की झूठी पत्तल चाट रहे थे
||

नादान परिंदा हूँ , मेरी उड़ान को हौंसला दीजिये
इतनी नफरत भर कर जो बैठे हो ,
मोहब्बत को भी जरा दिल में एक घोंसला दीजिये
कहते हो सब ख़त्म हो गया बचा कुछ नहीं
खुद में झांकिए और खुदी को जला दीजिये

|||
अकेले ख्वाबों के सहारे ज़िन्दगी बसर करते रहे
कुछ वादे किये थे हमने उनसे ,
बस वो वादे असर करते रहे
||
वो रात भर जागता है
नसीब उसका, भला फिर क्यों सोता है ?

||
क्या इल्तिज़ा करें ख़ुदा से ,
कि बर्बादी के कगार पर हम हैं ।
इस क़दर ग़ुलाम हैं सियासतों के
कि मुद्दतों से बेगार पर हम हैं ।।
||

वो जो वतन की हिफाज़त करते हैं
गद्दार हैं
जो मज़हब की बात करें
वो ही समझदार हैं
कौन टाले क़यामत को अ-दोस्त
जो चोर हैं वही पहरेदार हैं
।।

मौत भी भला क्या सोच कर फ़कीरों से मिली
एक जान ही तो थी भला, वो भी ख़ुदा से उधार मिली
क्या जवाब दें उनके ख़त का हम ??
कल थी दिल मे ,आज वो शराब में मिली !!
||

मेरा यूँ जलना आग में ,
तेरा यूँ खिलना ज्यों बहार कोई बाग़ में
यूँ  तो लिख दूँ सकल काल मैं
पर क्या लिखूं तेरी खुदी के जवाब में ?

||

इंतहा कोई तो हो मेरे सब्र की भी
बहुत महंगे हैं ग़र जनाज़े नवाबों के
कोई कीमत तो हो फ़कीरों की कब्र की भी ।
||

मेरे आँसुओं की भी कोई कीमत थी
वो फ़क़त पानी तो नही ।
ये जो ज़ीनत तेरे चेहरे पर आई है ,
फिर से कोई चाल है ,
महज़ जवानी तो नही ।।
||

मैं फिर वहीं लौट आता हूँ
पाँव उठाता हूँ, गिर पड़ता हूँ ।
अजीब अदब सिखा रही है ज़िन्दगी
सर झुकाता हूँ , ग़ुलाम हो जाता हूँ  ।।
||
वे शामें हमने अक्सर यूँ ही गुज़ार दी ।
ना फ़लसफ़ा कोई ज़िन्दगी का,ना इल्म तेरा ।
बस तबस्सुम तेरे अधरों की और चंद सांसे उधार की ।
😎
||
ख़ुदा किस्मत मुझे भी नवाजता
ग़र मैं खुद्दार ना होता
कुबेर के बाजार में हम भी बिकते
ग़र जमाना गद्दार ना होता
।।

मुलाक़ातों के तेरे ऐसे वादे थे
मरकर भी मुक़म्मल ना हुए
तुझे भूलने के जो इरादे थे ।
।।
अक्सर ख़ुदा मेरे मुक़द्दर को लात मारता है
ना मैं हारता हूँ, ना वो जीतता है ।।
।।
ज़िन्दगी है कि चले जाती है
हम हैं कि राख होकर भी जले जाते हैं
ये तो ख़्वाब हैं चंद ,
हम हैं कि ज़िन्दगी समझ कर जिये जाते हैं |
||
उदास साँझ अक्सर पी लेता हूँ ।
मौत हर वक़्त गला दबाती है जिंदगी का ,
मैं इस शहर में भी जी लेता हूँ ।।

                    ||
       सूरज निकला है , सांझ ढलना बाकी है |
     तुम जागे गये  हो, मेरा सोना बाकी है
    इंसाफ हुआ है !
     अभी गुनाह होना बाकी है  ||
           
                 ||

 अ-ख़ुदा मेरा मुकद्दर भी देख ,
बहाने बहुत हैं
और निशाना एक |
   
   ||

तेरी जुल्फों को हम भी संवार लेते
जागकर यूँ आँखों में रात हम भी गुजार लेते
हमे कुबूल नहीं इश्क़ तेरा
वर्ना चाँद जमीं पर हम भी उतार लेते |
     ||

यक़ीनन मैं अमर नहीं
 जीतूँ मैं , एसे भी सब समर नहीं
 पर लौट जाऊं मुरझाये फूल देखकर
ऐसा भी मैं भ्रमर नहीं
           
               ||
  काली घनी झुल्फों के नीचे ,
झुमका बड़ा जालिम है
मैं तो यूं ही लिख देता हूँ ,
 वो ही असली ग़ालिब है ||

Friday, 22 November 2019

संस्कृत की मृत्यु शय्या

संस्कृत को कैंसर हो रहा है एकदम दयनीय हालत में संस्कृत काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक कोने में पड़ी लम्बी साँसे ले रही है | दुनिया भर के  वैद्य संस्कृत को घेरे हुए हैं | कभी कभार वो एक एक करके कमरे से बाहर आते हैं और बॉलीवुड की फिल्मों के डॉक्टर्स की तरह "आई एम् सॉरी " कहकर चले जाते हैं | मुझे संस्कृत की इस नाजुक हालत का दुःख नहीं है , मुझे चिंता इस बात कि सता रही है की संस्कृत के जाने के बाद उन कहानियों का क्या होगा जिनमे मुख्य भूमिका काशी से संस्कृत पढ़े पंडित की होती थी | संस्कृत कि तबियत और बिगड़ जाती है | इसी बीच एक और पारंगत वैद्य बुलाया जाता है Dr Firoz Khan , पर ये क्या !! ये तो मुसलमान है !! कुछ जवान पंडित इस पर भड़क जाते हैं | कुछ लोग समझाने कि कोशिश में लगे हैं |

संस्कृत कुछ कहना चाहती है लेकिन अब वह कुछ नहीं कह सकती उसकी जगह अब उसकी बड़ी बहन संस्कृति ने ले ली है अब संस्कृत की और से सिर्फ संस्कृति बोलेगी | ये दोनों यूँ तो जुड़वां बहने हैं लेकिन संस्कृति फिटनेस फ्रिक थी तो अब तक तंदुरूस्त है | ये बात ओर है की आज संस्कृति का ये मुस्कुलेर जिस्म मज़हब और जाति जैसे ज़हरीले स्टेरॉयड लेकर बना है | संस्कृत को अब खून की उल्टियाँ हो रही हैं वह शायद "कालिदास और दारा शिकोह" को याद कर रही है |

मैंने कुछ सज्जनों को कबीर के  दोहे , "जाति ना पूछो साधू की" , का हवाला दिया तो मुझे तर्क दिया गया की इसमें सिर्फ जाति की बात हुई  है धर्म की नहीं | हाँ शायद यही वजह थी की कबीर शायद दो मजहबों के बीच लटक कर रह गया | मैं नि:शब्द हूँ वैसे ही जैसे कबीर था |

खैर मुझ जैसे जातिवादी आदमी की कलम से ये शब्द नहीं सुहाते , हाँ इतना जरूर कहूँगा की संस्कृत छटपटा रही है | जिस भाषा पर सिर्फ हिन्दू हक जताते हैं वो इस देश की ०.००2 % जनता द्वारा बोली जाती है | कुछ ऐसा ही हाल उर्दू का है बस उसका कैंसर 1st स्टेज का है | देश की 4.3 % जनता उर्दू बोलती है | देश में 196 बोलियां विलुप्ति के कगार पर हैं |

जो लोग फ़िरोज़ खान के खिलाफ पंडित मदन मोहन मालवीय का हवाला देते हैं वो jio का मुफ्त वाला इन्टरनेट इस्तेमाल करके काशी विश्व विद्यालय की वेबसाइट जरुर देखें ||

Sunday, 15 September 2019

सभ्यताओं का इतिहास

फिर धुआँ निकल रहा है
जल रही हैं कारखानों से सटी बस्तियां
संग चिताएं भी
आओ ,
देखो सब मिलकर
जलती सभ्यताओं को ,बनते इतिहास को
तालियाँ पीटकर हँसते काल  को

राख पर बना,
ये लहूलुहान इतिहास भी जलेगा
फिर बनेगा
फिर जलेगा , बनेगा
सिर्फ काल होगा
और हाँ !! चीखें भी
शाश्वत ||

(2017)

Saturday, 16 March 2019

कालाधन

वो देखो काला धन जा रहा है , पकड़ो-पकड़ो , दबोचो | मेरे कानो में ज्यों ही ये शब्द पड़े, मैं जोर से उछल पड़ा |
मुझमे ऐसे  जोश और स्फूर्ति का संचार हुआ कि एक पल को मुझे लगा कि मैं सारा कालाधन पकड़ कर "56" तालों वाली सरकारी अलमारी में डाल दूंगा | ऊपर से आदरणीय सजग चौकीदार साहब 56 इंच की छाती लिए हुए पहरा दे रहे होंगे |

मैं अपने दुर्बल पैरों से बहुत तेज दौड़ा , इतना तेज  , जितना तेज  हनुमान जी संजीवन बूटी लाते वक्त उड़ नहीं पाए थे | मेरे ऊपर से रफाले भी इसी होड़ में उड़ रहा था | बेचारा मिग एक बार फिर से धरती पर आ गिरा |
मेरे साथ अनगिनत बेरोजगारों की  भीड़ भी दौड़ रही थी |पकोड़े बेचने वाले कुछ उद्यमी भी नई उम्मीदों के चक्कर में मेरे साथ हो लिए थे | कुल मिलाकर भीड़ इस बार ATM पर लगी लाइनों से ज्यादा थी |

मेरा हाथ ज्यों ही कालेधन के बोरे पर पड़ता है बोरा अचानक फट पड़ता है | धमाका इतना तेज था कि मैं भरे बाजार नंगा हो गया , बाकी जो इर्द-गिर्द थे उन पर  कालिख पुत गयी | विपक्ष दौड़ने में इतना धीमा था की धमाके का असर उन तक पहुंचा ही नहीं ,उनके कुर्ते आज भी सफ़ेद हैं | उन्हें तो ये वहम भी है कि कालेधन का बोरा अब तक भाग रहा है और वे उसे एक दिन दबोच लेंगे |

P.S >>  दौड़ने से पहले मैंने पतंजलि च्यवनप्राश खाया था और 2-4 चुनावी रेलियों में नारे भी लगाये थे |

Saturday, 9 February 2019

यार


मेरी आँखों की रोशनी जा रही है
कोई चराग़ तो जलाओ
मेरे कुछ यार खो गए हैं इस मेले में
जरा कोई आवाज तो लगाओ ।।

वो मरे नही हैं
वो बहरे भी नही हैं
डूब जाएं मेरे यार कहीं
सागर इतने गहरे भी नही हैं।।

Tuesday, 8 January 2019

बागी जुगनू

      मैं जुगनुओं कि बस्ती ढूंढ रहा हूँ
      वो जुगनू ,
      जो मुर्दा रात में चराग लाते थे
      रातों की चिता जला सवेरे तक लौट जाते थे
      मैं उन जुगनुओं की बस्ती ढूंढॅ रहा हूँ |

      जब से सरकारी केबल आयी है
      वो सब बागी हो गये हैं
      मैंने चम्बल छान मारी
      सुना है वो नुमाइंदों सरीके दागी हो गये हैं
      कुछ कहते हैं जबसे मैंने गाँव छोड़ा है
       उस बस्ती में आग लगा दी
      कुछ जो थे उजाले की ओट में बचे
      उन पर राजद्रोह की छाप लगा दी

      यक़ीनन वो लौट आयेंगे
      रातें फिर इतनी काली ना होंगी
       बस्तियां फिर कभी खाली ना होंगी

       उनके आने पर ,
       देखो तुम कोई दीप ना जलना
       वो अवधेश नहीं , ना सही
       वो विशेष नहीं , ना सही
      उनके पिछवाडों का मगर मखौल  ना उडाना


Sunday, 23 December 2018

ईमान बनाम किसान

ईमान बेचना होगा जनाब ,
फसलों की कीमत से अब गुजारा नही होता ।

ये पंक्तियां दिल्ली में हमने किसी साहिबा को अपने शायराना अंदाज से प्रभावित करने के लिए सुनाई तो वे हमें bloody cheap farmer- खूनी सस्ता किसान ,बोलकर कट ली ।  हमारी औकात और जिंदगी की कीमत के हिसाब से सस्ते और किसान तो हम थे लेकिन साला खूनी कैसे हो गए ये समझ नही आ रहा , शायद कभी हरी फसल काटी हो ।

P. S> मुझ जैसे गंवार को कमेंट्स में अंग्रेज़ी ना सिखाये ।
और हाँ किसान दिवस मुबारक हो , उनको भी जो नही हैं ।

Friday, 21 December 2018

भसड़


दिल्ली का पारा जितना गिर रहा है , हनुमान जी के आसपास कि सियासत उतनी ही गरमा रही है | गत रात सपने में मुझे हनुमान दिखे | उनकी देह गरम लोहे सी तप रही थी | वे अपने दलित होने के दस्तावेज लिए अपने क्षेत्र के तहसीलदार को ढूंढ रहे थे | मैंने अपनी मैली रजाई फ़ौरन उतार फेंकी |

     खैर , हनुमान जी का जातिप्रमाण पत्र तो मैं मांगूंगा नहीं फिर भी तथाकथित राजनैतिक बुद्धिजीवियों के बीच अपना मत रखना चाहूँगा |
  सीता का पता लगाने के लिए हनुमान को आरक्षण की मदद से चुना गया था | भगवान राम खुद क्षत्रिय होते हुए भी आरक्षण के खिलाफ न जा सके थे उल्टा उन्होंने निजी मामले मे आरक्षण को प्राथमिकता दी | तब से यह हिन्दू संस्कृति का अभिन्न अंग बन गया है और इसी आधार पर निजी क्षेत्र मे आरक्षण की पैरवी की जा सकती है |

     दूसरा सबूत यह है कि दलित होने की वजह से हनुमान को रावण (उम्मीद है रावण के पंडित होने का प्रमाण पत्र मुझसे नहीं माँगा जायेगा )के दरबार मे तिरस्कृत किया गया था | इसी वजह से उनकी पूंछ में भी आग लगाई गयी | ST-SC ATROCITIES ACT पर चर्चा तब भी हुई थी लेकिन तब लोकतंत्र ना होने और अपर्याप्त प्रतिनिधित्व की वजह से मामला कलयुग के लिए टाल दिया गया |
 
      लोकतंत्र से याद आया सबको अपना मत रखने का अधिकार है तो क्यों ना हनुमान जी से भी इस विषय पर कुछ पूछा जाए | उनकी आधार डिटेल्स के आधार पर (गौरतलब है हनुमान, आत्मज पवन, के आधार कार्ड बनने कि खबरे फेक न्यूज़ कि तरह फैली थी ) उन्हें पहचान कर उन तक पंहुचा जा सकता है |

 मेरी पोस्ट में logic ढूंढने वाले निश्चित रूप से नास्तिक हैं और मुझसे बड़े अतार्किक भी | खैर , आग लगी है और मैं ठंड की वजह से आग के पास आया हूँ | मेरे बगल में लोकतंत्र बड़े मजे से गांजा फूंक रहा है और मुझे भी हल्का-हल्का सुरूर हो रहा है तो विदा लेता हूँ |


Friday, 2 November 2018

देखो क्या चल रहा है
 मरते मनुजों कि चिता में ख़ुदा जल रहा है
और एक अंधा  बूढ़ा है
वह आग लगा रहा है
वही चिता सजा रहा है
देखो क्या चल रहा है

आइना पिघल रहा है
आसमान जल रहा है
अंधा मंदिर-मस्जिद पर मचल रहा है
देखो क्या चल रहा है

वीरान रात में
अकेला आसमान  चिल्ला रहा है
शमशान की दहलीज पर खड़ा बूढ़ा ,
जलती चिताओं में हाथ सेंक रहा है
देखो क्या चल रहा है

परबत से आँसू बह निकले हैं
आंसुओं से पर मनुज भला कब पिघले हैं
परबत पर एक नादान तलवार लिए बैठा है ,
उसकी तलवार से काला खून निकल रहा है
देखो क्या चल रहा है

       

Thursday, 9 August 2018

मरूँगा मैं भी
पर मैं लड़कर मरूँगा
लडूंगा मैं समर के अंत तक
लडूंगा मैं अगले जन्म तक
मैं पार्थ नहीं ,
ना सही
मैं लडूंगा एकलव्य बनकर
मेरे तरकश के तीर ख़त्म हो जायेंगे ,
मैं तब भी लडूंगा
सारे रणबांकुरे मारे जाएंगे ,
मैं तब भी लडूंगा
और लडूंगा ,
जब तक ,
मैं ख़ुदा से वो कलम नहीं छीन लेता
जिससे वह तक़दीर लिखता है
और इस कलम से सृष्टि के अंत तक काल रेखाएं खींच दूंगा
अनन्त लंकाधीशों को मारकर मुठ्ठी में भींच लूँगा ||

                       ||
मुझे पागल कहना ,
तुम्हारी आदतों का हिस्सा था
मेरा पागल होना ,
मेरी किस्मत का किस्सा था
एक बार तो मुझे पहचाना होता
मेरे अंदर भी एक समंदर था ।।

यूँ ना अब वो समंदर सूखेगा
यूँ ना अब वो मस्तक झुकेगा
फिर चाहे महाभारत सा रण हो जाए
मैं भीष्म हो जाऊंगा,
मैं शर-शय्या पर सो जाऊंगा,
मैं तब भी ना मर पाऊंगा,
फिर चाहे ख़िलाफ़ ये प्रण हो जाए ।।

Thursday, 12 July 2018


  वह आखिरी पन्ना जो खाली है ,
 जिस पर मैं कविता लिखता हूँ |
 मेरी बुनियाद उस आखिरी पन्ने से शुरू होती है
उससे पहले सारे पन्ने किसी और ने लिखे हैं
 मुझे सिर्फ एक पन्ना मिलता है ,
 आखिरी पन्ना मिलता है |
तुम चाहते हो मैं उसमे रंग भरूं
मैं चाहता हूँ कविता लिखूं
और मैं लिखता हूँ
बेजोड़ लिखता हूँ
उसी आखिरी पन्ने पर ,
जिसे युगों से टाला जा रहा है
या रंग भरा जा रहा है |
ये वही आखिरी पन्ना है ,
जो हवा चलने पर सबसे ज्यादा छटपटाता है
मानो मुक्ति चाहता हो
वेदों के इन्ही आखिरी पन्नों  में वेदान्ता लिखा जाता है

वह आखिरी पन्ना खत्म हो जाता है
किताब को पलटकर रख दिया गया है
आखिरी पन्ना फिर से दबा दिया जाता है

मैं फिर से नई किताब खोजूंगा
एक और आखिरी पन्ना ढूंढुंगा
मैं यह तब तक करता रहूँगा ,
जब तक मैं अपने आखिरी पन्नों कि एक किताब नहीं बना लेता
और इस किताब में कोई आखिरी पन्ना नहीं होगा ||

Friday, 22 June 2018

हुडिबाबा , उसे यह नाम गाँव के बच्चों ने दिया था | ढलती  उम्र , सांवला रंग , लम्बी दाढ़ी ,माथे पर मैला सा गमछा , हाथ में छड़ी और चाल में चपलता  शायद उसके व्यक्तित्व की वजह से ही बच्चे उससे डरते थे और उसे हुडिबाबा के नाम से चिढ़ाया करते थे | हुडिबाबा सवेरे से शाम तक गाँव के गली-मोहल्लों में घूमता रहता था |जब बच्चे उसे हुडिबाबा कहते वो बेंत लेकर तब तक उनके पीछे दौड़ता जब तक बच्चे अपने घरों में ना घुस जाते | अब बच्चों का डरना, डरना ना होकर खेल सा हो गया था |

                      एक जेठ की दोपहर मेरे घर के चौक में पेड़ के नीचे हुडिबाबा बैठा है | घर के जवांन , बड़े-बूढ़े उसे घेर बैठे हैं | उसने आज माथे पर सफ़ेद पगड़ी बाँधी है | मैं उसे देखता हूँ , डरकर कमरे में चला जाता हूँ और खिड़की से उसकी तरफ़ देखता हूँ | वह अपने निरीह हाथों से पेट की तरफ़ इशारा करता है, उसे खाना परोस दिया गया है | खाते हुए वह कहना शुरू करता है...
       
                      मैं अमरसर गाँव का बड़ा सेठ था | आस पास के गाँवों  में मेरी तूती बोलती थी | भरा-पूरा परिवार था मेरा , मैं , मेरे दो भाई , बच्चे पूरा घर आबाद हुआ करता था | उपरवाले कि इस ख़ूबसूरत इनायत के लिए मैं उसका शुक्रगुजार था |

                       पच्चीस बरस पहले पौष कि पंचमी की सांझ में,  मैं अलाव  जलाकर बैठा था | मेरे घर के सामने दारोगा की गाडी आकर रूकती है | मुझे बताया जाता है कि मेरे दोनों भाइयों की सड़क दुर्घटना में मौत हो गयी है | उस दिन भगवान ने अपनी वह  इनायत मुझसे वापस छीन ली | तब से आजतक मैं भगवान को ढूंढ रहा हूँ | लोग  कहते हैं कि भगवान तुम्हे कभी नही मिलेगा | क्यों ? मेरे पूछने पर कोई कुछ नहीं बोलता , उल्टा पागल-पागल फुसफुसाते हैं , नास्तिक कहीं के |

                    इतना कहकर हुडिबाबा उठ खड़ा होता है | मैं , उसकी यातना से अनभिज्ञ , जोर से हुडिबाबा-हुडिबाबा चिल्लाकर कमरे में छुप जाता हूँ | इस बार वह चिढ़ा नहीं और अश्रु मिश्रित मुस्कुराहट से मेरी तरफ देखता है फिर आसमान ताकता है , शायद भगवान को ढूंढ रहा हो |

                   उसके बाद हुडिबाबा मुझे कभी नहीं दिखा | मैं जब भी मंदिर जाता हूँ , मुझे लगता है कि जैसे भगवान की मूर्ती के पीछे हुडिबाबा अपनी बेंत लिए खड़ा है और इंसाफ मांग रहा है |\

Sunday, 8 April 2018



वो आसमान में बो रहे हैं बीज ,
वहाँ मेघ बरसता कहाँ है ?
जो ढूंढते हैं मस्जिद में ख़ुदा 
इल्म हो उन्हें ,
ख़ुदा आजकल मस्जिदों में रहता कहाँ है ?

Friday, 16 March 2018

विचारों के द्वन्द में
कलम घुमाता हूँ
कुछ कल के
और
कुछ कल के
बेसुरे गीत गुनगुनाता हूँ
बंजर रेगिस्तान से
मुहब्बत कर बैठता हूँ
फिर प्यास से छटपटाता हूँ
मारा जाता हूँ
फिर जीवंत हो जाता हूँ
पी रक्त अपना
स्वयंभू हो जाता हूँ
निर्जल मरुधर में
लहरें आती है 
ठीक वैसी ही ,
जैसी सागर पर तैरती हैं
भव भयानक
फिर नूतन हो जाता है
अमावस की काली रात के बाद
जैसा सवेरा हो जाता है 

Thursday, 8 March 2018

मेरी कविताओं के कुछ अंश वहाँ बिखेर देना
चुप्पी सी गुलामी घर किये बैठी है
बदलाव के कुछ अक्षर उन माथों पर उकेर देना ||

जो आदर्शों का दास था
कुछ वैसा ,
जैसा श्रीराम का वनवास था
रोशनदान उस अँधेरे में एक खोल आना
बहरी भीड़ में भी ,
मेरी कविताओं के कुछ अंश बोल आना ||

बदलाव कि स्वभाविकता बदली जाए
तर्कों के तरकश भरे जाएं
महाभारत के समर में ,
कौरव-पांडव दोनों पराजित हों
जय हो उनकी भी ,
जो थे एकलव्य , तुम्हे विदित हो ?

कर्जदार-किसानो की हड्डियों पर खड़े
पूंजीवाद के कारखानों की नीव उखाड़ देना
मरा अगर ख़ुदा किसी रोज
मेरी कविताओं के कुछ बीज कब्र पर बिखेर देना || 

Friday, 16 February 2018

किसान -साब कर्ज चाहिए 
बैंक -कितना ?
बीस हजार 
हैं !! अरे भाई कुछ ज्यादा मांग लो ?
किसान- ??
देखो कल को कर्ज चुका ना पाए तो लटकने के लिए मजबूत रस्सी तो चाहिए ना | हमारा डिफाल्टर जिन्दा बचे ऐसा हम थोड़े ना होने देंगे |
साब डिफाल्टर ?
अरे तुम साला गंवार ही रहोगे | अब देखो , मोदी जी को पैसों के साथ हमने टिकट्स भी मुफ्त दी थी ताकि पकडे जाने से पहले वो देश छोड़ सकें |
पर हमे तो देश नहीं छोड़ना , हम देश भक्त हैं साब |
अरे तुम देशभक्त हो ना इसलिए दुनिया छोडनी होगी, हाँ अगर  सिर्फ "भक्त" होते तो देश छोड़ने से काम चल जाता और वैसे भी तुम्हारी रस्सी हीरे जितनी मजबूत तो ठहरी ना |

Monday, 12 February 2018

प्रेम-दिवस निकट आ रहा था
पप्पू पकोड़े तल रहा था
हमारा भविष्य था कि ,
विकट लग रहा था |
गलियारों में इश्क़ कि बयार चली थी
वक्त वो था ,
जब दिल में इश्क़ कि उम्मीद पली थी |

अचानक कुछ यूँ घोष हुआ
हर आशिक़ मदहोश हुआ |
सुना इश्क़ बिक रहा था ,
उसी ठेले पर,
जहाँ पप्पू पकोड़े ताल रहा था |

रण-वाहिनियाँ सी आ डटी थी
वक्त वो था ,
जब पहली बार हमारी भी फटी थी |
गुलाब, चॉकलेट सब अस्त्र-शस्त्र से तन गये थे
जो जीते रांझे बन गये थे
कहते हैं ,
जो थे पराजित सब कवि बन गये थे |

जख्म उस रण के
अब भी ना भूल पाता हूँ
टूटी-फूटी सी दिल कि कलम है
जख्मों से रिसते लहू को स्याही बना लेता हूँ ||

Tuesday, 19 December 2017

अभी-अभी जो गुजरा है !
जो नि:शक्त सा था !
हाँ-हाँ ,
वही तो वक्त था |

पहले बहुत बड़ा सा
हाथी जैसा ,
बेडौल हुआ करता था |
पूरब से पश्चिम तक सूरज संग चला करता था |
अब बहुत बदला सा लगता है ?
घड़ियों में बंध गया है ,
तीन सुइयों में बंट गया है
बेशक वक्त बहुत बदल गया है |

नुक्कड़ पर जो इकलोती बत्ति जलती है
जलती है , बुझती है
धुंधली भी हो गयी है ,
ठीक वैसे ही जैसा वक्त हो गया है !
काला-कलूटा ,
भूतों से भी भयावह
पत्थरों से सख्त है
हाँ-हाँ
वही तो वक्त है !




मुझमे और ख़ुदा में अंतर क्या है ?
दरिया ग़र रोक दूं , समन्दर क्या है ?
नशा ना हो जाम में , मयखाने क्या हैं ?
पलट कर हमे भी देख मल्लिका-ए-हुस्न
नजरें ग़र ना हों , नजराने क्या हैं ?

Monday, 11 December 2017

तपती रेत से सन कर ,
कांटों , बीहड़ों ,शिखरों से छानकर
हवा मुझ तक पहुंचती है
और उग्र हो जाती है ,
व्याकुल व्याघ्र सी हो जाती है |

वह कहती है ..
मुहाजिर मुल्क मांगते हैं
हिन्दू मांगते हैं वतन
सरहद पर लगी आग में ,
अनायास ही जलता है मेरा बदन ?

हवा हूँ , फिर कहे देती हूँ
 वह आग यहाँ तक ले आऊँगी
संग अनुज तुम्हारा भी जलाऊँगी
सत्तातख़्त पलट फिर तुम नाचोगे
जल गये एक बार जो ,
फिर राख भला क्या बांटोगे ?

इतना कह पवन कुछ धीमी हो गई
सतह धरा की आँसुओ से गीली हो गई

चलती हूँ ..
हिमगिरि से आलिंगन कर आती हूँ
ख़त अगर हो कोई ,
भागीरथी तक दे  आती हूँ  |

हाँ , कुछ कलमे सहेज रखी हैं
कुछ गद्दारों को बेच रखी हैं

नहीं , ऐसा ना हो पाएगा
ख़त गुनाहों का
गंगा में ना धुल  पाएगा |

क्यों ?
ऐसा भला क्या अनर्थ हुआ ?
जो किये गुनाह ,
क्या सब व्यर्थ हुआ ?

हाँ ,
बूढी गंगा ठीक से ना अब चल पाती है
लौटते वक्त खून के कतरे मुझ तक उछाल दिया करती है |







Sunday, 26 November 2017


     1-4-2019
स सूं प्यारी रांखी,
तू गलो दियो मेरो घोट
के कारण छोड़ी ये गजबण
कांई मुझ मं खोट ||

दिन उगतां भारी काड़ी
छिपतां पोया रोट
तू सारी भकत चिलम म काड़ दी
खेतां म गळगा मक्का मूंग मोठ
इं कारण छोड़ी र बालमा
यो ही तुझ म खोट ||

चिलम मेरी ना छुट ली बैरण
खै द्यूं डंका की चोट
सागे बैठ र चिलम पिस्यां
सागे काट स्यां गैडा कि एक पोट ||

(कोना मानी अर पीर चली गी | मोट्यार भी हठ को पाको र मुछ को बांको | जा ख च कुआ क माय पड़  )

12 साल बाद

घर सूनो वह्गो , सूनी वह्गी गुवाड़ी
अब तो आ जाए बैरण ,
 हरी वह्गी तैलां खेतां कि बाड़ी ||

अर खच चल्यो जा .....
ना तो ले पाटी खटवा  कि सो जाऊं ली
इं बियाबान जंगल म घाल धूंणों
मैं भी मीरां हो जाऊंली ||

टाबर होगा ब्याह आला
मीरां होयां कयां पार पडली
बिन सासू का इ घर म
भू कयां आर बडली ||

चिलम छोड़ दे , हुक्का न फोड़ दे
बारा बीघा का एकलो नाका मोड़ दे
जद चाल स्यूं ढोला ,
अर ना तो लुगाई कि उम्मीद छोड़ दे ||

तेरी सारी बातां मानगो
माड़ो तो कोना छो मोट्यार म
पर त्रिया हठ क आग हारगो    ||

{ भगवान जादिम को सडोतो
    दादो मेरो नानगो
अर माड़ो तो कोना छो मोट्यार म
पर त्रिया हठ क आग हारगो || }



    25-11-2017
बारा मर गा ,चड़स डूबगी
भाण या क्यां थारी भी किस्मत फूटगी
राजवाडा को राज गयो ,बडबोरां का बोर
मेघ रूंस गा रूंख सूख गा
कुण पर चाल ये मायड म्हारो जोर | |
|
|
खाटा का बाण टूटगा
हाळया का हल छूटगा
डूंगर ढाता बां जोधा का बळ टूटगा ||
ज्यो ज्यो घरां न छो सब जीम ल्यो
बेगी आगी टेम सावा की
अर बेगा सा अ देव उठ गा ||

Friday, 6 October 2017



 
  सारे निशान जो तेरे थे,
   मिटा दिए हैं
  सारे ख़त जो तेरे थे ,
   जला दिए हैं
 रात भी है और चाँद भी
   सारे सितारे जो तेरे थे  ,
    छुपा दिए हैं
जश्न होगा क़त्ल-ए-मुहब्बत का अब ,
  सारे सपने जो तेरे थे ,
    भुला दिए हैं

Monday, 25 September 2017

I am not good at politics and never got the moves of  political parties during elections but i pretended of knowing about politics just to create or retain an image of mine in my friend circle. Now a days i am learning something that is the word "Hypocrisy" from government and our prestigious culture. We are celebrating Durga-puja, Beti Bachao Beti Padhao, Women empowerment and many more you can find out from internet ( Only if you want to prepare for certain exams..:P). Our respected prime minister is visiting foreign countries so that investment can be promoted and jobs be created for youths , there are debates and bills on reserving seats for women in legislature. All these are certainly important. But the questions remain that, are the intention pure? , how much of this is reaching to us ? and if yes then who is getting it? ( Govt declared the completion of Sardar Sarover Dam project but those who lost their land are still searching for livelihood--according to some newspapers).
                       Government is trying to create a very good international image of Bharat. whenever our respected PM goes to any foreign country or vise versa then there are some cultural events just to promote our culture which we are witnessing in BHU. I have no authority to challenge the policy initiatives by the experts sitting in government but as a responsible citizen we can certainly ask a question that if the internal socio-economic condition are such poor, our youths are suffering mental illness( women can not go out in night but men can molest any woman they want) in this so called globalized modern era, then in such condition should we not pay due attention to our own society, improving the internal conditions of the country instead of creating a fake international image and merely achieving material growth which is certainly not development.
                     Some of my friends argue that गेंहू के साथ घुन भी पिसते हैं so the विकास  will come at some cost( who should pay that cost?). A wrong done is always wrong my friend no matter what are the means and motives.
#celebrating_navratra_in_BHU

Sunday, 10 September 2017


         कुछ नज़्मे लाहौर से सरहद पार आयी हैं
          धूल सनी , प्यासी
          पूरा का पूरा  रेगिस्तान  लांघ आयी हैं
         
             ये जीने का हक़ मांगती हैं
           कुछ तो छूटा है इनका यहाँ
             क्यों भला ये रोज सरहदें लांघती हैं
           ये शाश्वत हैं , इनके आँसू रोज सूखे जाते हैं |
            उसी तपती रेगिस्तानी सरहद के इर्द-गिर्द
            सियासतों के अंकुर फूट जाते हैं
           
          सन सैंतालीस में जन्मी
          ये वे ही बूढी नज्मे हैं,
           जो अमृतसर में  गुनगुनायी गयी थी
          ये वही जवानियाँ हैं ,
          जो जंग-ए-आज़ादी में दफनाई गयी थी
          वे कहती हैं
           इतना फूटकर हम उस रात रोयी  थी
          गंगा भी उफनी , सिन्धु भी मचली
          सियासतें मगर उस रात भी सोयी थी



Friday, 25 August 2017

हरियाणा को फूंकने वाले लोगों को यदि कश्मीरी युवाओं कि याद दिलाई जाये तो यही लोग देशभक्त बन जाते हैं | इस दौरान ये लोग भूल जाते हैं कि देश भोगोलिक परिसीमाओं से नहीं वहाँ रह रहे नागरिकों से बनता है | कश्मीरियों के बिना कश्मीर जीतना वैसा ही है जैसा राम रहीम के समर्थकों का देशभक्त होना | जब एक देश अर्थात् उसके नागरिक अपनी आलोचना पर गौर करना बंद कर देते हैं तो इन परिस्तिथियों का आना स्वभाविक है | कल तक ये ही लोग कश्मीर जलाकर अपनी देशभक्ति सिद्ध करना चाह रहे होंगे और आज वो यही हरयाणा-पंजाब जलाकर कर रहे हैं | जब तक देश एसे लोगों से मिलकर बना है जो अपने खिलाफ कुछ सुनने को तैयार नहीं हैं, तब तक इस देश में जाति-धर्म के नाम पर राजनीती को अनुचित ठहराना मूर्खता होगी |

तुम जलकर राख हो जाते हो
हम जलकर धुआं हो जाते हैं
ख़ुदा कि रहमत भी उन पर है अ-दोस्त ,
जो आग लगाकर रहनुमा हो जाते हैं 

Monday, 31 July 2017

हैवान, हाला, हवस सब आसमान से उतर आये थे
उन्ही रस्सियों के सहारे जो देव जन्नत छोड़ आये थे
पच्छिम का वह प्रभात मैंने देखा था
इंसान जब हैवानो सा दौड़ा था
ख़ुदा इंसानों कि बस्ती से भाग रहा था
कहते हैं उस वक्त इंसान जाग रहा था
ख़ुदा और उसका डर अब कहावतें थी
हर घर उस दिन ईद की दावतें थी
शराब के घड़ों से इंसानियत बहे जाती थी
सागर सब लबालब थे उससे
चाँद पर बैठी बुढिया ये बात कहे जाती थी

सब घेर खड़े हैं उसे , ख़ुदा बेड़ियों में जकड़ा है
इंसान कहता मैंने पकड़ा , हैवान कहते हमने पकड़ा है
चाँद वाली अम्मा कहती है..
           ख़ुदा कुछ बोलना चाहता है
तभी तेज आवाज में मौलवी अजान गाता है
बस्ती में एक और इंसान जागता है |




Saturday, 22 July 2017

जब मनिया गाँव से गुम  हुआ तो चौदह बरस का था | आज पूरे आठ साल बाद लौटा है  वही चेहरा, कद-काठी, नैन-नक्श सब वैसे ही तो हैं | सब मनिया को घेर खड़े हुए हैं और मनिया कह रहा है :
       मैं जब नींद से उठा तो एक अजीब देश में था | वहाँ की औरतों का सौन्दर्य देखते ही बनता था, बाल इतने घने और लम्बे कि जब चलती तो बुहारी आप ही लग जाती थी | कहते हैं,वहाँ जवानी के बाद वक्त और उम्र रुक जाती है |
 मेरे बाल मुंडवा कर एक नुक्कड़ पर रख दिए गये थे | ये बाज़ार था बालों का बाजार जहाँ कई देशों से लाये हुए   नाना तरह के बाल रखे हुए थे|  सुंदरियां उन्हें अपने  बालों में जोड़कर आइना देखती और फिर मुस्कुराकर एक गुच्छा उठा लेती | ये हसीन शैतानो का देश था--कांगरू देश |
          मनिया गमछा उठा अपने मुंडे माथे का पसीना पोंछते हुए बात पूरी करता है | चौपाल पर चुप्पी छाई हुई है यकायक एक चीख सुनाई देती है दीना की छोरी के बाल कट गये रे हाय अनर्थ हो गया अनर्थ | गाँव दीना के चौक में आ खड़ा हुआ है | सब मनिया कि तरफ घूरते हैं और मनिया कांगरू देश कि तरफ | मेरे  हाथ स्वतः  ही फेसबुक पर पोस्ट लिखने लग जाते हैं  मैं कांगरू देश कि उन हसीनाओं  को टैग करना चाहता हूँ पर मनिया कहता है वहाँ फेसबुक बैन है |

Tuesday, 6 June 2017

तुम जलकर राख हो जाते हो
हम जलकर धुआं हो जाते हैं
ख़ुदा की रहमत भी  उन पर है अ-दोस्त
जो आग लगाकर रहनुमा हो जाते हैं

अपना दिल महफ़ूज ना रख पाए
मेरा दिल चुराने की बात करते हो ?
अपना आंगन उजाड़ आये
ग़ैरों का संवारने कि बात करते हो ?
मुझे मिटाने का इरादा है ?
 तुम ही काफी थे  
पूरा शमशान क्यों लाये हो ?


Sunday, 4 June 2017

इस शहर कि परतें उधड रही हैं
और मुझ पर आ लिपटी हैं
नित नूतन होता यह,
अब चमकने लगा है
इसकी पुरानी ,जूठी  परतों तले दबा
मैं भी बदल सा गया हूँ
बदले मायने लेकर गाँव पहुँचता  हूँ
मेरा गाँव मुझे धिक्कार देता है
पहचानने से भी कतरा जाता है
मैं लौट आता  हूँ
इस शहर से एक और सौदा कर लेता हूँ 

Saturday, 20 May 2017

चलो नुक्कड़ नाटक देखने चलते है
पात्र क्या हैं ?
एक लोकतंत्र है दूसरा तानाशाह है
अद्भुत !
चलते हैं |
कुछ देर नौटंकी चलती है फिर अचानक दोनों पात्र तांडव नाचने लगते है | मैं लोकतंत्र को तानाशाह के साथ तांडव नाचता देखकर चकित हूँ , पूछता हूँ तो आइटम सॉंग का हवाला देकर चुप करा दिया जाता हूँ |
     अचानक नाचते-नाचते लोकतंत्र टूटकर तानाशाह कि बाँहों में गिर पड़ता है ! भीड़ में चुप्पी छा गयी है , मैं अकेले तालियाँ पीटता हूँ | मतदाताओं कि आहत भीड़ कुछ देर मुझे घूरती है फिर मुझ पर टूट पड़ती है और लोकतंत्र फिर जी उठता है !!
                    पर्दा गिरता है 

Tuesday, 2 May 2017


कस्तूरी मृग सी हो गयी है ज़िन्दगी
वो कहतें हैं  कि तुम  काबिल बहुत हो
और हम खुद  के इर्द-गिर्द भटक रहें हैं
||

मैं बेहतर  हो रहा  हूँ
तुम्हारे पैमानों से नापा जा रहा  हूँ
ये पैमाने ओछे हैं  
और  परिभाषाएं नंगी हैं
या फिर भद्दे रंगों से रंगी हैं
इन्हें धो कर सुखाओ
ये निश्चय ही फीकी पड़ जाएंगी
तले दबी सभ्यताएं फिर जाग जाएंगी
यक़ीनन , तुम सब मारे जाओगे
जन्नत-जहन्नुम आसमान से गिर पड़ेंगे
देव-दानव भी मारे जाएंगे
सब साफ़ सफ़ेद कफ़न ओढाए जाओगे
मैं बर्बाद हो दैत्य बन जाऊंगा...to be continued






अंतिम छोर कोसों दूर है
तुम्हारी पैमानों कि  परिसीमाओं से
aa

Saturday, 15 April 2017

बारूद भर कर पूछते हैं वो ,जलते क्यों हो ?
खैर करें वो ख़ुदा का ,हम फटते नही |
|
|
ग़र जल तुम रहे हो ,
तो तप हम भी रहे हैं |
तुम भी पलटो ,
हम भी पलटकर देखें
ये आग लगा कौन रहें हैं ?
|
|
मैं फैज़ हो जाऊं ,
मैं मंटो भी |
मैं दिनकर हो जाऊं ,
मैं शंकर भी |
बदलेगा वक़्त
सवाल वही होंगे
फिर होंगे मेरे जैसे कुछ और भी |
राहें बदलेंगी
राहगीर भी |
सच वही होंगे झूठ थे जो कल ,
झूठ होंगे जो कल भी
|
|
खुद से पूछना वही
जो मुझसे  पूछते हो |
फिर एक बार हम भी पूछेंगें
बर्खुरदार ,
तुम इतने सवाल क्यों पूछते हो ?



Thursday, 6 April 2017

आईनों से सजी दीवारें ,
अनन्त महत्वाकांक्षाएं ,
ताकती उम्मीदें
सब मुझे आ घेरे हैं
और मैं टुकड़ों में बंट गया हूँ |
ढलते सूरज ने मिसालें दी हैं
मैं फिर उठ गया हूँ |
इस बार दीवारें और मजबूत हो गयी हैं
सीसों की धूल झाड दी गयी है
पैरों को हल्का सा काट कर दौड़ की दूरी बढ़ा दी है
काल करम दोहरा रहा है
और मैं फिर कलम के इर्द-गिर्द बिखर रहा हूँ 

Tuesday, 4 April 2017

  भाई इतना जोर से क्यों गा रहे हो ? मैंने एक लौंडे से पूछा, जो कानों में earphone लगाये बेख़बर हो बहुत तेज़ गा रहा था |मैंने earphone लगा रखे हैं तो मुझे मेरी तेज आवाज सुनाई नही देती, वह बोला | पर आपने earphone क्यों लगा रखे हैं ? मुझ पर तंज कसते हुए बोला , श्रीमान आपको विदित हो बाहर शोर बहुत है अतः मैंने earphone लगाये हैं |  यकायक मुझे  कुछ कथित स्व्सत्यापित देशभक्त , कुछ वामपंथी , दक्षिणपंथी याद आ गये और अंग्रेजी शब्द hypocrisy की समझ भी |

Tuesday, 15 November 2016

आज पहली shortlist आई  थी
संगणक अभियांत्रिकी छोड़ सब में खामोसी छाई थी
यकायक pas पर एक और notification आया
प्रोफाइल पर सॉफ्टवेयर इंजिनियर ने फिर से कब्ज़ा जमाया
गुस्सा हुआ ,मैं  बहुत खिसियाया
हमारा विभाग औकात संग मुझे समझाने आया

अब नवंबर भी बीत गया
मैं shortlisted देखने को तरस गया
अगली shortlist में मैं शामिल था
सूट पहन निहारा शीशा
अब लगा मैं भी किसी काबिल था
और सब तो ठीक था
मुझे tell me about yourself नही आता था
यही सोच मन बेचैन हुआ जाता था
भोर में interviewer से साक्षात् हुआ 
सीधा linked list पूछा !
हम पर मानो वज्रपात हुआ 
वो कुछ बोले , हम कुछ बोले 
जो होना था उसका अहसास हुआ 

अब परिचय छोड़ हम coding पर बैठ गये 
सब ठीक रहा बस pointer हमसे ऐंठ गये 
बहुत लड़े पर coding से ना पार पाए थे 
अगले घंटे हम core पर लौट आये थे 
core ने शीघ्र ही रास्ता साफ़ किया 
ग्रेड शीट दिखा उसने भी मुझे विदा किया 

इससे ज्यादा बेइज्जती खुद की ना कर पाउँगा
मेरा स्वाभिमान रूठा तो कैसे उसे मनाऊँगा ...:P
आखिर किसी  जाल में हम भी फंसे
थोडा रोये खुद पर , थोडा हँसे  ||














Wednesday, 9 November 2016

अच्छा हुआ जो मोदी ने चाल चली
सदियों से बिछड़ी सखियाँ बैंक की कतार में मिली
दिखे आज कुछ शख्स भारी थैलों के संग
ज्यों कंधे पर हल रखे किसान बैलों के संग 
अब किस खेत को जोतेंगे ?
बिगड़ा है मानसून धरती बंजर सी हो गयी है
संदूक की चमकीली चाबी खंजर सी हो गयी है
गुप्ता जी बोले कसकर बांधो नाडा अब दंगे होंगे
हमें डर है ,
नोटों के बोझ से खिसकेगी पतलून और गुप्ता जी नंगे होंगे

Tuesday, 27 September 2016



गुणवत्ता से समझोता नही साब
घटिया ईमान बेचकर प्रतिष्ठा ना करानी ख़राब
डिमांड सप्लाई का लोचा है
इसीलिए पहले आपका सोचा है
दोपहर तक सूरज माथे चढ़ जायेगा
अभी ले लो साब, फिर भाव और बढ़ जायेगा

ये सज्जन तोलकर ईमानदारी बेच रहा था ..

ना ठगो हमें ..
हम अपने अधिकार जानते हैं
डिजिटल इंडिया का जमाना है
हर सरकारी योजना, सकल अर्थशास्त्र पहचानते हैं

साब लेना है तो लो अब थोड़ी ही बची है ...
ईमानदारी चीज़ ही एसी है ,
कालाबाजारी में भी खलबली मची है

ठीक है हम जरा गंगा हो आते हैं
पाप धो, तुम्हे निपटाते हैं
अरे सर ये घोर अपराध न करना
क्लीन गंगा चल रहा है ,
पाप उधर ना धोना ...
हमने फ्रंट पेज पर समाचार दिया है
कल ही गंगा का गोमूत्र से उपचार किया है
गोमूत्र से याद आया
कोई उचित मूल्य की गाय बताओ
भैंस ले लो साब , गाय दूध कम देती है
दूध क्यों !! जब गोमूत्र से दुनिया चलती है .....



गुणवत्ता से समझोता नही साब
घटिया ईमान बेचकर प्रतिष्ठा ना करानी ख़राब
डिमांड सप्लाई का लोचा है
इसीलिए पहले आपका सोचा है
दोपहर तक सूरज माथे चढ़ जायेगा
अभी ले लो साब, फिर भाव और बढ़ जायेगा

ये सज्जन तोलकर ईमानदारी बेच रहा था ..

ना ठगो हमें ..
हम अपने अधिकार जानते हैं
डिजिटल इंडिया का जमाना है
हर सरकारी योजना, सकल अर्थशास्त्र पहचानते हैं

साब लेना है तो लो अब थोड़ी ही बची है ...
ईमानदारी चीज़ ही एसी है ,
कालाबाजारी में भी खलबली मची है

ठीक है हम जरा गंगा हो आते हैं
पाप धो, तुम्हे निपटाते हैं
अरे सर ये घोर अपराध न करना
क्लीन गंगा चल रहा है ,
पाप उधर ना धोना ...
हमने फ्रंट पेज पर समाचार दिया है
कल ही गंगा का गोमूत्र से उपचार किया है
गोमूत्र से याद आया
कोई उचित मूल्य की गाय बताओ
भैंस ले लो साब , गाय दूध कम देती है
दूध क्यों !! जब गोमूत्र से दुनिया चलती है .....

Monday, 12 September 2016

गाँव


शहर-शोर छूटे हैं पीछे
धूप ने बदन भिगोया है
मुकर गयी हैं सड़कें ,
पगडंडियों ने फिर रास्ता दिखाया है
लगता है फिर कोई गाँव आया है

थोथी चमक मैली हुई
धुआं पार भी नज़र आया है
हर कली महकी है बाग़ की
दुश्मन भी मुस्कुराया है
लगता है फिर कोई गाँव आया है

किताब के पन्नों ने बिखेरी है खुशबू
बादलों ने बिन गरजे सावन बरसाया है
माटी महकी है सौंधी-सौंधी
कन्धों ने फिर से हल उठाया है
लगता है फिर कोई गाँव आया है


Thursday, 30 June 2016


                    काली घनी झुल्फों के नीचे ,
                   झुमका बड़ा जालिम है
                    मैं तो यूं ही लिख देता हूँ ,
                     वो ही असली ग़ालिब है | 
                     इस क़दर पनप रही हो 
                 ज़िन्दगी हो, या नफरत हो ?

             जो इश्क़ दरिया था तुम्हारा,तो दिल मेरा भी समंदर था 
             कमबख्त कई दरिया साथ समेटे था ||

                      " शुक्र है  ऐ खुदा तेरा जो तूने मुकद्दर मारा
                             जिंदगी को अब इरादों का साथ है "

                    " इश्क़ तो हमने भी बुलंदियों से किया
                      वफ़ादार मगर ठोकरें निकली "

                      वफ़ादार है मेरी तन्हाई
                      अक्सर मेरा साथ देती है

                       तुम नेक थे , ये धोखा था
                       हम एक हैं , ये भी धोखा है
                     
         
                      एक शख्सियत थी तुम्हारी
                      एक हस्ती थी हमारी
                      हम नूर की गलियों में  घूमा करते थे
                      तुम कलियों सी संवरा करती थी
                   
                   
                   
                   
                   

                       हम अदब से पेश आये
                     
                        अब मेरी तरफ देखो
                        ना चेहरे पे मेरे नूर है
                       और तुम जितना निखर रही हो
                       हम से तुम होकर उतना ही बिखर रही हो
                     

Tuesday, 14 June 2016



                                    "मैं मंज़िलों का पीछा करता रहा
                                     ज़िन्दगी रास्ता बनकर बीत गयी
                                     मैं ढूँढता रहा तेरी महक का सुरूर
                                     तू पूरी मधुशाला बनकर बीत गयी
                                      जब देखा पीछे मुड़कर तुझे
                                      तू यादें बनकर बीत गयी "


                                        मैं भी खाली हूँ , तू भी खाली है
                                        आ बैठ कुछ बातें करते हैं
                                        मेरे कंधे पर सिर टिका तू ,
                                        दोनों मिलकर कोई ख़्वाब बुनते हैं
                                        या कोई पहेली पूछ तू मुझसे ,
                                        दोनों मिलकर हल करते हैं
                                        जब पिछली बार मिली थी
                                        कुछ हल्की सी थी ,
                                        तुम्हारा बोझ बढ़ रहा है ?
                                        या तोलने के मायने बदल रही हो ?
                                        हर दिन अपना ठिकाना बदल देती हो
                                        किसी और से मोहब्बत कर लेती हो !
                                        हर रोज पुकारता हूँ
                                        क्यों हर रोज परिभाषाएं बदल लेती हो ?
                                       
                                   
                                     

                                    

Sunday, 1 May 2016



           जुदा होने का ये अंदाज़ क्या है ?
            ना खुशियाँ हैं ,ना आँसू हैं ,
             खाली सा ये पैग़ाम क्या है ?
            एक जूनून था यारों ,
             जब तुम्हारे साथ था
             तुम बिन कैसे हैं रास्ते ?
              तुम बिन अन्जाम क्या है ?

Sunday, 17 April 2016



     क्षितिज के उस पार ,
     जहाँ आसमान ढह रहा है
     मैं ज़िंदगियाँ ढूँढ रहा हूँ
     अँधेरे से लड़ेंगे जो भोर तक
     उन सितारों का अन्जाम ढूँढ रहा हूँ
     वाम है , दक्षिण है
     बीच का था जो पंथ उसका पैगाम ढूँढ रहा हूँ
     जला दिए गये जो सत्ताओं की आग में
     उन पर लगे इल्जाम ढूँढ रहा हूँ
    बनाये तो सब गये हैं
    स्वयंभू हो , वो हैवान ढूँढ रहा हूँ
    मार दिए गये सब भूमिपुत्र
    मैं ज़िन्दा कोई  हलधर ढूँढ रहा हूँ
    तुम कहते हो नश्वर है झूठ,
    तो शाश्वत है जो ,मैं वो सत्य ढूँढ रहा हूँ
    धारणाएं बदली , मनुज बदले
    मैं बदलाव के मायने ढूँढ रहा हूँ
    धुंधले हो चुके हैं सब ,
   खुद को देख पाऊं, वो आईने ढूँढ रहा हूँ
    बिखेर दी जो स्याही कलमों ने
    अब तक उसका मतलब ढूँढ रहा हूँ
    तुम जो कब से बैठे हो निःशब्द
   हाँ, मैं तुम्ही से कुछ पूछ रहा हूँ  |
        

Thursday, 14 April 2016




  तुम उतर आओ कविताओं में
  क्यों अब तक खड़ी हो ?
  अल्हड़ रात की चौखट पर
  एक कदम बढ़ो तो ,
 वीराने कानन में गूंजो तो
तुम शब्द बनकर मिलो कभी
मैं तैरूँगा तुम्हारे संग
प्रेम की नदियों में
कविताओं के सागर में
तुम थक चुकी हो ?!
मैं अनवरत सृजित हो रहा हूँ
कभी देखो चौखट के उस पार
मैं क्रंदन कर रहा हूँ
फिर से पुकारा है तुम्हे
आवाजें वापस लौट आई हैं
ये रात मुझसे बात नही करती ,
तुम्हारा ज़िक्र करता हूँ तो भाग जाती है
देखो फिर भाग खड़ी हुई
अब इसका पीछा मुश्किल हो गया है
बहुत चल लिया रेगिस्तान में
अब प्यास लगी है
कवितायेँ भी सूख गयी हैं ,
रसहीन हो चुकी हैं
अब तो तुम उतर आओ कविताओं में
क्यों अब तक खड़ी हो ?
 अल्हड़ रात की चौखट पर


Friday, 1 April 2016




                              विचार हैं ,
                              मुद्दे हैं ,
                             नूतन है ,
                             पुरातन है ,
                             हास्य है ,
                             क्रन्दन है ,
                             उपमाएं हैं ,
                              अलंकार हैं ,
                              कर्ता है ,
                              कर्म है ,
                        कविता गायब है ,
                        मैं ढूंढ़ता हूँ उसे ,
                        मुद्दों ,अलंकारों ,नवरसों की भीड़ में |
                        वो ना दूर जाती है , ना पास आती है !!
                         बस ,दूर खड़ी कुछ बेतुके गीत गाती है |

Monday, 14 March 2016



     जब तूफान थम जायेंगे
     जब वक्त की आंधियाँ धीमी पड़ जायेंगी
     जब अहसासों के बोल होंगे
     यादों का संगीत होगा,  
     तब कवितायेँ गायेंगी |

   ना डर होगा ,ना नादानी होगी
   बस खुशियाँ होंगी
   यादों का ईंधन होगा
   ग़मों की चिताएं होंगी ,
   तब कवितायेँ गायेंगी |

  आँखों  में पानी होगा
  अधर मुस्कुराएंगे
  लेखनी जीवंत रहेंगी
  नश्वर मर जायेंगे ,
  तब कवितायेँ गायेंगी |

 

 
 


Wednesday, 9 March 2016



                     भूल मत तू  ही प्रेरणा है तेरी ,
                     तेरे ख्वाबों पर अधिकार है तेरा |
                     कुछ आँखे उम्मीदों के आंसू लिए बैठी हैं ,
                     उन्हें बहने का मौका दे ,
                     गला लोहे को ,
                     पत्थर को पिघलने का मौका दे |
                     मत डाल पानी आग पर ,
                     पवित्र हो जाने दे ,
                      उन  ख़्वाबों को उम्मीदों की आग में जलकर |
               

Tuesday, 8 March 2016





                                                   
         
                                       उसकी यादें ताज से ज्यादा खूबसूरत थी  |
                                        उजड़े चमन में बहार आती थी ,
                                        जब वो हंसती थी |
                                        उसका तो क्रंदन भी निराला था ,
                                        हर एक आंसू उसका यमुना ने पाला था |
                                        एक दिन तो बवाल हो गया ,
                                        इतना रोयी मुमताज ,
                                        कि यमुना के जलस्तर में उछाल हो गया |

                                       ठहरिये जहाँपनाह ये कुछ ज़्यादा  हो गया !
                                       नहीं , नहीं!!
                                      तुम ही देख लो |
                                      ना मुमताज रही ,ना वो आंसू रहे |
                                     अब सूखी यमुना है ,
                                     उसके तट पर रोता , बुढ्ढा ताज है |
                                     ना मैं याद हूँ , ना मुमताज याद है ,
                                     तुम्हे पत्थर का ताज याद है |

                                     
                                  

Friday, 26 February 2016




             आज आँखे मूँद , कुछ गाँव देखें हैं सपनो में
              जो पीछे रह गये हैं ,दौड़ने की होड़ में ||

   
             गाँव की उस टूटी-फूटी सड़क पर चलती जीप में
              90 के दशक के गाने बजते होंगे आज भी  ?
             ओवरलोड जीप पर लटक सफ़र करते होंगे नौजवान ?
              आज भी  |
   
               चालक कमीज के दो बटन खुले रखता होगा ?
               उसके जेब में उछलते सिक्कों की छन्न-छन्न
                गानों के साथ घुलती होगी ?आज भी |

                बीडी पीकर बुजुर्ग जीप में धुआं छोड़ते होंगे |
                कोई शहर से लौटा बाबू , सिगरेट निकलकर
               कश खींचता होगा,  आज भी ?

               एक-दूसरे को देखकर लोग मुस्कुरा देते होंगे ?
               धूप उतनी ही तेज़ होगी ,
               उन पथरीले रास्तों पर चलती जीप के साथ
               उतनी ही तेज़ चलती होगी पवन ?
               आज भी ?
               

         
             
               


    

Thursday, 25 February 2016




                     दो चरित्र पाले  जा  रहे हैं ,
                     आदिकाल से !
                     परदे के दोनों तरफ ,
                     एक दूसरे से अनजान |
                     कब से  सींचे जा रहे हैं ,
                     विपरीत विचारधाराओं से |

                    विचारधाराएँ ?
                    जो पैदा की गयी हैं ,
                    हालातों का इस्तेमाल कर,
                    मनोदशाओं पर वार कर |

                     कब से बदलते रहें है ,
                     हालत !
                     बनाये गये हैं , बिगाड़े गये हैं
                     जानबूझकर ,स्वार्थों को निचोड़ कर |

                       फिर एक दिन टकरा जाते हैं |
                       दोनों चरित्र
                       पूर्ण विकसित
                       अपने-अपने मायनों में |
                       चिंगारियां अब तक निकल रही हैं ,
                       लपटों से घिरी ,
                       जली-भुनी सभ्यताओं की राख में
                       दो चरित्र फिर पाले जा रहे हैं ,
                       परदे के दोनों तरफ |
                       अन्नत काल तक !!
                         


                

Wednesday, 17 February 2016

साहब मीडिया खड़ा है बाहर ,
क्या जवाब दें?
आलाकमान का आदेश है,
खिलाफ बोला जाये |
साब हम सोचकर बोल दें ?
हमे लगता है विरोध गलत होगा |
अबे बच्चे हो तुम..
चुनावी रणनीति क्या जानो तुम ?
भुजबल हो भुजबल ही रहो तुम
ज्यादा सोचे तो बाहर कर दिए जाओगे,
बगावत के नाम पे लपेट लिए जाओगे |
और हाँ सुनो, कह देना..
ये देश का बच्चा-बच्चा बोल रहा है ,
हर लफ्ज़ को न्याय का तराजू तोल रहा है |
समझे??
हाँ सर समझ गये..
थोडा गला खरांस कर जयहिंद भी बोल देंगे
देशभक्ति के तवे पर हम भी रोटी सेक लेंगे |
"जयहिंद"