कुछ नज़्मे लाहौर से सरहद पार आयी हैं
धूल सनी , प्यासी
पूरा का पूरा रेगिस्तान लांघ आयी हैं
ये जीने का हक़ मांगती हैं
कुछ तो छूटा है इनका यहाँ
क्यों भला ये रोज सरहदें लांघती हैं
ये शाश्वत हैं , इनके आँसू रोज सूखे जाते हैं |
उसी तपती रेगिस्तानी सरहद के इर्द-गिर्द
सियासतों के अंकुर फूट जाते हैं
सन सैंतालीस में जन्मी
ये वे ही बूढी नज्मे हैं,
जो अमृतसर में गुनगुनायी गयी थी
ये वही जवानियाँ हैं ,
जो जंग-ए-आज़ादी में दफनाई गयी थी
वे कहती हैं
इतना फूटकर हम उस रात रोयी थी
गंगा भी उफनी , सिन्धु भी मचली
सियासतें मगर उस रात भी सोयी थी
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