Monday, 12 September 2016

गाँव


शहर-शोर छूटे हैं पीछे
धूप ने बदन भिगोया है
मुकर गयी हैं सड़कें ,
पगडंडियों ने फिर रास्ता दिखाया है
लगता है फिर कोई गाँव आया है

थोथी चमक मैली हुई
धुआं पार भी नज़र आया है
हर कली महकी है बाग़ की
दुश्मन भी मुस्कुराया है
लगता है फिर कोई गाँव आया है

किताब के पन्नों ने बिखेरी है खुशबू
बादलों ने बिन गरजे सावन बरसाया है
माटी महकी है सौंधी-सौंधी
कन्धों ने फिर से हल उठाया है
लगता है फिर कोई गाँव आया है


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