Monday, 11 December 2017

तपती रेत से सन कर ,
कांटों , बीहड़ों ,शिखरों से छानकर
हवा मुझ तक पहुंचती है
और उग्र हो जाती है ,
व्याकुल व्याघ्र सी हो जाती है |

वह कहती है ..
मुहाजिर मुल्क मांगते हैं
हिन्दू मांगते हैं वतन
सरहद पर लगी आग में ,
अनायास ही जलता है मेरा बदन ?

हवा हूँ , फिर कहे देती हूँ
 वह आग यहाँ तक ले आऊँगी
संग अनुज तुम्हारा भी जलाऊँगी
सत्तातख़्त पलट फिर तुम नाचोगे
जल गये एक बार जो ,
फिर राख भला क्या बांटोगे ?

इतना कह पवन कुछ धीमी हो गई
सतह धरा की आँसुओ से गीली हो गई

चलती हूँ ..
हिमगिरि से आलिंगन कर आती हूँ
ख़त अगर हो कोई ,
भागीरथी तक दे  आती हूँ  |

हाँ , कुछ कलमे सहेज रखी हैं
कुछ गद्दारों को बेच रखी हैं

नहीं , ऐसा ना हो पाएगा
ख़त गुनाहों का
गंगा में ना धुल  पाएगा |

क्यों ?
ऐसा भला क्या अनर्थ हुआ ?
जो किये गुनाह ,
क्या सब व्यर्थ हुआ ?

हाँ ,
बूढी गंगा ठीक से ना अब चल पाती है
लौटते वक्त खून के कतरे मुझ तक उछाल दिया करती है |







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