Sunday, 17 April 2016



     क्षितिज के उस पार ,
     जहाँ आसमान ढह रहा है
     मैं ज़िंदगियाँ ढूँढ रहा हूँ
     अँधेरे से लड़ेंगे जो भोर तक
     उन सितारों का अन्जाम ढूँढ रहा हूँ
     वाम है , दक्षिण है
     बीच का था जो पंथ उसका पैगाम ढूँढ रहा हूँ
     जला दिए गये जो सत्ताओं की आग में
     उन पर लगे इल्जाम ढूँढ रहा हूँ
    बनाये तो सब गये हैं
    स्वयंभू हो , वो हैवान ढूँढ रहा हूँ
    मार दिए गये सब भूमिपुत्र
    मैं ज़िन्दा कोई  हलधर ढूँढ रहा हूँ
    तुम कहते हो नश्वर है झूठ,
    तो शाश्वत है जो ,मैं वो सत्य ढूँढ रहा हूँ
    धारणाएं बदली , मनुज बदले
    मैं बदलाव के मायने ढूँढ रहा हूँ
    धुंधले हो चुके हैं सब ,
   खुद को देख पाऊं, वो आईने ढूँढ रहा हूँ
    बिखेर दी जो स्याही कलमों ने
    अब तक उसका मतलब ढूँढ रहा हूँ
    तुम जो कब से बैठे हो निःशब्द
   हाँ, मैं तुम्ही से कुछ पूछ रहा हूँ  |
        

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