Friday, 22 June 2018

हुडिबाबा , उसे यह नाम गाँव के बच्चों ने दिया था | ढलती  उम्र , सांवला रंग , लम्बी दाढ़ी ,माथे पर मैला सा गमछा , हाथ में छड़ी और चाल में चपलता  शायद उसके व्यक्तित्व की वजह से ही बच्चे उससे डरते थे और उसे हुडिबाबा के नाम से चिढ़ाया करते थे | हुडिबाबा सवेरे से शाम तक गाँव के गली-मोहल्लों में घूमता रहता था |जब बच्चे उसे हुडिबाबा कहते वो बेंत लेकर तब तक उनके पीछे दौड़ता जब तक बच्चे अपने घरों में ना घुस जाते | अब बच्चों का डरना, डरना ना होकर खेल सा हो गया था |

                      एक जेठ की दोपहर मेरे घर के चौक में पेड़ के नीचे हुडिबाबा बैठा है | घर के जवांन , बड़े-बूढ़े उसे घेर बैठे हैं | उसने आज माथे पर सफ़ेद पगड़ी बाँधी है | मैं उसे देखता हूँ , डरकर कमरे में चला जाता हूँ और खिड़की से उसकी तरफ़ देखता हूँ | वह अपने निरीह हाथों से पेट की तरफ़ इशारा करता है, उसे खाना परोस दिया गया है | खाते हुए वह कहना शुरू करता है...
       
                      मैं अमरसर गाँव का बड़ा सेठ था | आस पास के गाँवों  में मेरी तूती बोलती थी | भरा-पूरा परिवार था मेरा , मैं , मेरे दो भाई , बच्चे पूरा घर आबाद हुआ करता था | उपरवाले कि इस ख़ूबसूरत इनायत के लिए मैं उसका शुक्रगुजार था |

                       पच्चीस बरस पहले पौष कि पंचमी की सांझ में,  मैं अलाव  जलाकर बैठा था | मेरे घर के सामने दारोगा की गाडी आकर रूकती है | मुझे बताया जाता है कि मेरे दोनों भाइयों की सड़क दुर्घटना में मौत हो गयी है | उस दिन भगवान ने अपनी वह  इनायत मुझसे वापस छीन ली | तब से आजतक मैं भगवान को ढूंढ रहा हूँ | लोग  कहते हैं कि भगवान तुम्हे कभी नही मिलेगा | क्यों ? मेरे पूछने पर कोई कुछ नहीं बोलता , उल्टा पागल-पागल फुसफुसाते हैं , नास्तिक कहीं के |

                    इतना कहकर हुडिबाबा उठ खड़ा होता है | मैं , उसकी यातना से अनभिज्ञ , जोर से हुडिबाबा-हुडिबाबा चिल्लाकर कमरे में छुप जाता हूँ | इस बार वह चिढ़ा नहीं और अश्रु मिश्रित मुस्कुराहट से मेरी तरफ देखता है फिर आसमान ताकता है , शायद भगवान को ढूंढ रहा हो |

                   उसके बाद हुडिबाबा मुझे कभी नहीं दिखा | मैं जब भी मंदिर जाता हूँ , मुझे लगता है कि जैसे भगवान की मूर्ती के पीछे हुडिबाबा अपनी बेंत लिए खड़ा है और इंसाफ मांग रहा है |\

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