Sunday, 23 December 2018

ईमान बनाम किसान

ईमान बेचना होगा जनाब ,
फसलों की कीमत से अब गुजारा नही होता ।

ये पंक्तियां दिल्ली में हमने किसी साहिबा को अपने शायराना अंदाज से प्रभावित करने के लिए सुनाई तो वे हमें bloody cheap farmer- खूनी सस्ता किसान ,बोलकर कट ली ।  हमारी औकात और जिंदगी की कीमत के हिसाब से सस्ते और किसान तो हम थे लेकिन साला खूनी कैसे हो गए ये समझ नही आ रहा , शायद कभी हरी फसल काटी हो ।

P. S> मुझ जैसे गंवार को कमेंट्स में अंग्रेज़ी ना सिखाये ।
और हाँ किसान दिवस मुबारक हो , उनको भी जो नही हैं ।

Friday, 21 December 2018

भसड़


दिल्ली का पारा जितना गिर रहा है , हनुमान जी के आसपास कि सियासत उतनी ही गरमा रही है | गत रात सपने में मुझे हनुमान दिखे | उनकी देह गरम लोहे सी तप रही थी | वे अपने दलित होने के दस्तावेज लिए अपने क्षेत्र के तहसीलदार को ढूंढ रहे थे | मैंने अपनी मैली रजाई फ़ौरन उतार फेंकी |

     खैर , हनुमान जी का जातिप्रमाण पत्र तो मैं मांगूंगा नहीं फिर भी तथाकथित राजनैतिक बुद्धिजीवियों के बीच अपना मत रखना चाहूँगा |
  सीता का पता लगाने के लिए हनुमान को आरक्षण की मदद से चुना गया था | भगवान राम खुद क्षत्रिय होते हुए भी आरक्षण के खिलाफ न जा सके थे उल्टा उन्होंने निजी मामले मे आरक्षण को प्राथमिकता दी | तब से यह हिन्दू संस्कृति का अभिन्न अंग बन गया है और इसी आधार पर निजी क्षेत्र मे आरक्षण की पैरवी की जा सकती है |

     दूसरा सबूत यह है कि दलित होने की वजह से हनुमान को रावण (उम्मीद है रावण के पंडित होने का प्रमाण पत्र मुझसे नहीं माँगा जायेगा )के दरबार मे तिरस्कृत किया गया था | इसी वजह से उनकी पूंछ में भी आग लगाई गयी | ST-SC ATROCITIES ACT पर चर्चा तब भी हुई थी लेकिन तब लोकतंत्र ना होने और अपर्याप्त प्रतिनिधित्व की वजह से मामला कलयुग के लिए टाल दिया गया |
 
      लोकतंत्र से याद आया सबको अपना मत रखने का अधिकार है तो क्यों ना हनुमान जी से भी इस विषय पर कुछ पूछा जाए | उनकी आधार डिटेल्स के आधार पर (गौरतलब है हनुमान, आत्मज पवन, के आधार कार्ड बनने कि खबरे फेक न्यूज़ कि तरह फैली थी ) उन्हें पहचान कर उन तक पंहुचा जा सकता है |

 मेरी पोस्ट में logic ढूंढने वाले निश्चित रूप से नास्तिक हैं और मुझसे बड़े अतार्किक भी | खैर , आग लगी है और मैं ठंड की वजह से आग के पास आया हूँ | मेरे बगल में लोकतंत्र बड़े मजे से गांजा फूंक रहा है और मुझे भी हल्का-हल्का सुरूर हो रहा है तो विदा लेता हूँ |


Friday, 2 November 2018

देखो क्या चल रहा है
 मरते मनुजों कि चिता में ख़ुदा जल रहा है
और एक अंधा  बूढ़ा है
वह आग लगा रहा है
वही चिता सजा रहा है
देखो क्या चल रहा है

आइना पिघल रहा है
आसमान जल रहा है
अंधा मंदिर-मस्जिद पर मचल रहा है
देखो क्या चल रहा है

वीरान रात में
अकेला आसमान  चिल्ला रहा है
शमशान की दहलीज पर खड़ा बूढ़ा ,
जलती चिताओं में हाथ सेंक रहा है
देखो क्या चल रहा है

परबत से आँसू बह निकले हैं
आंसुओं से पर मनुज भला कब पिघले हैं
परबत पर एक नादान तलवार लिए बैठा है ,
उसकी तलवार से काला खून निकल रहा है
देखो क्या चल रहा है

       

Thursday, 9 August 2018

मरूँगा मैं भी
पर मैं लड़कर मरूँगा
लडूंगा मैं समर के अंत तक
लडूंगा मैं अगले जन्म तक
मैं पार्थ नहीं ,
ना सही
मैं लडूंगा एकलव्य बनकर
मेरे तरकश के तीर ख़त्म हो जायेंगे ,
मैं तब भी लडूंगा
सारे रणबांकुरे मारे जाएंगे ,
मैं तब भी लडूंगा
और लडूंगा ,
जब तक ,
मैं ख़ुदा से वो कलम नहीं छीन लेता
जिससे वह तक़दीर लिखता है
और इस कलम से सृष्टि के अंत तक काल रेखाएं खींच दूंगा
अनन्त लंकाधीशों को मारकर मुठ्ठी में भींच लूँगा ||

                       ||
मुझे पागल कहना ,
तुम्हारी आदतों का हिस्सा था
मेरा पागल होना ,
मेरी किस्मत का किस्सा था
एक बार तो मुझे पहचाना होता
मेरे अंदर भी एक समंदर था ।।

यूँ ना अब वो समंदर सूखेगा
यूँ ना अब वो मस्तक झुकेगा
फिर चाहे महाभारत सा रण हो जाए
मैं भीष्म हो जाऊंगा,
मैं शर-शय्या पर सो जाऊंगा,
मैं तब भी ना मर पाऊंगा,
फिर चाहे ख़िलाफ़ ये प्रण हो जाए ।।

Thursday, 12 July 2018


  वह आखिरी पन्ना जो खाली है ,
 जिस पर मैं कविता लिखता हूँ |
 मेरी बुनियाद उस आखिरी पन्ने से शुरू होती है
उससे पहले सारे पन्ने किसी और ने लिखे हैं
 मुझे सिर्फ एक पन्ना मिलता है ,
 आखिरी पन्ना मिलता है |
तुम चाहते हो मैं उसमे रंग भरूं
मैं चाहता हूँ कविता लिखूं
और मैं लिखता हूँ
बेजोड़ लिखता हूँ
उसी आखिरी पन्ने पर ,
जिसे युगों से टाला जा रहा है
या रंग भरा जा रहा है |
ये वही आखिरी पन्ना है ,
जो हवा चलने पर सबसे ज्यादा छटपटाता है
मानो मुक्ति चाहता हो
वेदों के इन्ही आखिरी पन्नों  में वेदान्ता लिखा जाता है

वह आखिरी पन्ना खत्म हो जाता है
किताब को पलटकर रख दिया गया है
आखिरी पन्ना फिर से दबा दिया जाता है

मैं फिर से नई किताब खोजूंगा
एक और आखिरी पन्ना ढूंढुंगा
मैं यह तब तक करता रहूँगा ,
जब तक मैं अपने आखिरी पन्नों कि एक किताब नहीं बना लेता
और इस किताब में कोई आखिरी पन्ना नहीं होगा ||

Friday, 22 June 2018

हुडिबाबा , उसे यह नाम गाँव के बच्चों ने दिया था | ढलती  उम्र , सांवला रंग , लम्बी दाढ़ी ,माथे पर मैला सा गमछा , हाथ में छड़ी और चाल में चपलता  शायद उसके व्यक्तित्व की वजह से ही बच्चे उससे डरते थे और उसे हुडिबाबा के नाम से चिढ़ाया करते थे | हुडिबाबा सवेरे से शाम तक गाँव के गली-मोहल्लों में घूमता रहता था |जब बच्चे उसे हुडिबाबा कहते वो बेंत लेकर तब तक उनके पीछे दौड़ता जब तक बच्चे अपने घरों में ना घुस जाते | अब बच्चों का डरना, डरना ना होकर खेल सा हो गया था |

                      एक जेठ की दोपहर मेरे घर के चौक में पेड़ के नीचे हुडिबाबा बैठा है | घर के जवांन , बड़े-बूढ़े उसे घेर बैठे हैं | उसने आज माथे पर सफ़ेद पगड़ी बाँधी है | मैं उसे देखता हूँ , डरकर कमरे में चला जाता हूँ और खिड़की से उसकी तरफ़ देखता हूँ | वह अपने निरीह हाथों से पेट की तरफ़ इशारा करता है, उसे खाना परोस दिया गया है | खाते हुए वह कहना शुरू करता है...
       
                      मैं अमरसर गाँव का बड़ा सेठ था | आस पास के गाँवों  में मेरी तूती बोलती थी | भरा-पूरा परिवार था मेरा , मैं , मेरे दो भाई , बच्चे पूरा घर आबाद हुआ करता था | उपरवाले कि इस ख़ूबसूरत इनायत के लिए मैं उसका शुक्रगुजार था |

                       पच्चीस बरस पहले पौष कि पंचमी की सांझ में,  मैं अलाव  जलाकर बैठा था | मेरे घर के सामने दारोगा की गाडी आकर रूकती है | मुझे बताया जाता है कि मेरे दोनों भाइयों की सड़क दुर्घटना में मौत हो गयी है | उस दिन भगवान ने अपनी वह  इनायत मुझसे वापस छीन ली | तब से आजतक मैं भगवान को ढूंढ रहा हूँ | लोग  कहते हैं कि भगवान तुम्हे कभी नही मिलेगा | क्यों ? मेरे पूछने पर कोई कुछ नहीं बोलता , उल्टा पागल-पागल फुसफुसाते हैं , नास्तिक कहीं के |

                    इतना कहकर हुडिबाबा उठ खड़ा होता है | मैं , उसकी यातना से अनभिज्ञ , जोर से हुडिबाबा-हुडिबाबा चिल्लाकर कमरे में छुप जाता हूँ | इस बार वह चिढ़ा नहीं और अश्रु मिश्रित मुस्कुराहट से मेरी तरफ देखता है फिर आसमान ताकता है , शायद भगवान को ढूंढ रहा हो |

                   उसके बाद हुडिबाबा मुझे कभी नहीं दिखा | मैं जब भी मंदिर जाता हूँ , मुझे लगता है कि जैसे भगवान की मूर्ती के पीछे हुडिबाबा अपनी बेंत लिए खड़ा है और इंसाफ मांग रहा है |\

Sunday, 8 April 2018



वो आसमान में बो रहे हैं बीज ,
वहाँ मेघ बरसता कहाँ है ?
जो ढूंढते हैं मस्जिद में ख़ुदा 
इल्म हो उन्हें ,
ख़ुदा आजकल मस्जिदों में रहता कहाँ है ?

Friday, 16 March 2018

विचारों के द्वन्द में
कलम घुमाता हूँ
कुछ कल के
और
कुछ कल के
बेसुरे गीत गुनगुनाता हूँ
बंजर रेगिस्तान से
मुहब्बत कर बैठता हूँ
फिर प्यास से छटपटाता हूँ
मारा जाता हूँ
फिर जीवंत हो जाता हूँ
पी रक्त अपना
स्वयंभू हो जाता हूँ
निर्जल मरुधर में
लहरें आती है 
ठीक वैसी ही ,
जैसी सागर पर तैरती हैं
भव भयानक
फिर नूतन हो जाता है
अमावस की काली रात के बाद
जैसा सवेरा हो जाता है 

Thursday, 8 March 2018

मेरी कविताओं के कुछ अंश वहाँ बिखेर देना
चुप्पी सी गुलामी घर किये बैठी है
बदलाव के कुछ अक्षर उन माथों पर उकेर देना ||

जो आदर्शों का दास था
कुछ वैसा ,
जैसा श्रीराम का वनवास था
रोशनदान उस अँधेरे में एक खोल आना
बहरी भीड़ में भी ,
मेरी कविताओं के कुछ अंश बोल आना ||

बदलाव कि स्वभाविकता बदली जाए
तर्कों के तरकश भरे जाएं
महाभारत के समर में ,
कौरव-पांडव दोनों पराजित हों
जय हो उनकी भी ,
जो थे एकलव्य , तुम्हे विदित हो ?

कर्जदार-किसानो की हड्डियों पर खड़े
पूंजीवाद के कारखानों की नीव उखाड़ देना
मरा अगर ख़ुदा किसी रोज
मेरी कविताओं के कुछ बीज कब्र पर बिखेर देना || 

Friday, 16 February 2018

किसान -साब कर्ज चाहिए 
बैंक -कितना ?
बीस हजार 
हैं !! अरे भाई कुछ ज्यादा मांग लो ?
किसान- ??
देखो कल को कर्ज चुका ना पाए तो लटकने के लिए मजबूत रस्सी तो चाहिए ना | हमारा डिफाल्टर जिन्दा बचे ऐसा हम थोड़े ना होने देंगे |
साब डिफाल्टर ?
अरे तुम साला गंवार ही रहोगे | अब देखो , मोदी जी को पैसों के साथ हमने टिकट्स भी मुफ्त दी थी ताकि पकडे जाने से पहले वो देश छोड़ सकें |
पर हमे तो देश नहीं छोड़ना , हम देश भक्त हैं साब |
अरे तुम देशभक्त हो ना इसलिए दुनिया छोडनी होगी, हाँ अगर  सिर्फ "भक्त" होते तो देश छोड़ने से काम चल जाता और वैसे भी तुम्हारी रस्सी हीरे जितनी मजबूत तो ठहरी ना |

Monday, 12 February 2018

प्रेम-दिवस निकट आ रहा था
पप्पू पकोड़े तल रहा था
हमारा भविष्य था कि ,
विकट लग रहा था |
गलियारों में इश्क़ कि बयार चली थी
वक्त वो था ,
जब दिल में इश्क़ कि उम्मीद पली थी |

अचानक कुछ यूँ घोष हुआ
हर आशिक़ मदहोश हुआ |
सुना इश्क़ बिक रहा था ,
उसी ठेले पर,
जहाँ पप्पू पकोड़े ताल रहा था |

रण-वाहिनियाँ सी आ डटी थी
वक्त वो था ,
जब पहली बार हमारी भी फटी थी |
गुलाब, चॉकलेट सब अस्त्र-शस्त्र से तन गये थे
जो जीते रांझे बन गये थे
कहते हैं ,
जो थे पराजित सब कवि बन गये थे |

जख्म उस रण के
अब भी ना भूल पाता हूँ
टूटी-फूटी सी दिल कि कलम है
जख्मों से रिसते लहू को स्याही बना लेता हूँ ||