आज चलते रस्ते ठोकर लगी |
पैर से लहू के बजाय ,
माथे से विचारधारा बहने लगी |
क्योंकि जब नीचे देखा मैंने ,
तो राह में पड़ी वह ईंट मुझे
ही उलाहना देने लगी |
यूँ
तो मानव होने का घमंड था मुझे अपने पर,
पर आज पता नहीं क्यों मानवता
ही मुझे धिक्कारने लगी ?
मै स्तब्ध था , मुझे ये क्या हो गया
राह चलते क्यों मै इंसानियत से झगड़ गया |
रे मूर्ख ! इंसानियत से तो कोई भी जीत
नहीं पाया |
मन ने लताड़ा मुझे......
कहने लगा दुनिया तेरे बाप की जागीर
तो नहीं
जो तू परवाह करे इसकी |
कंही ओर है तेरी मंजिल ,जो तेरी राह देख रही |
अभी कदम बढ़ाना ही चाहा था, की ईंट फिर से पूंछ पड़ी |
क्या टिकी है आज तक वह मंजिल ?
जिसकी नीव की ईंट मजबूत नहीं |
मेरा उठता कदम ठहर गया |
मन तो अब शांत
हो गया ,
पर शायद अब दिल की बारी थी |
सवाल जवाब की मुठबेड भी जारी थी |
ईंट पूंछ रही थी मुझ से
,
क्यों बाजार में ग्राहक बिक रहा
था ?
क्यों बाजार में नारी बिक रही थी ?
क्यों आतंक फ़ैल रहा था
?
क्यों जनता महंगाई की मारी थी
?
उस ईंट की प्रतिभा देख
मन हुआ
उठा कर चूम लूँ
उसे |
पर डर गया ,
कही कोई देख ना ले मुझे |
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