Friday, 22 November 2019

संस्कृत की मृत्यु शय्या

संस्कृत को कैंसर हो रहा है एकदम दयनीय हालत में संस्कृत काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक कोने में पड़ी लम्बी साँसे ले रही है | दुनिया भर के  वैद्य संस्कृत को घेरे हुए हैं | कभी कभार वो एक एक करके कमरे से बाहर आते हैं और बॉलीवुड की फिल्मों के डॉक्टर्स की तरह "आई एम् सॉरी " कहकर चले जाते हैं | मुझे संस्कृत की इस नाजुक हालत का दुःख नहीं है , मुझे चिंता इस बात कि सता रही है की संस्कृत के जाने के बाद उन कहानियों का क्या होगा जिनमे मुख्य भूमिका काशी से संस्कृत पढ़े पंडित की होती थी | संस्कृत कि तबियत और बिगड़ जाती है | इसी बीच एक और पारंगत वैद्य बुलाया जाता है Dr Firoz Khan , पर ये क्या !! ये तो मुसलमान है !! कुछ जवान पंडित इस पर भड़क जाते हैं | कुछ लोग समझाने कि कोशिश में लगे हैं |

संस्कृत कुछ कहना चाहती है लेकिन अब वह कुछ नहीं कह सकती उसकी जगह अब उसकी बड़ी बहन संस्कृति ने ले ली है अब संस्कृत की और से सिर्फ संस्कृति बोलेगी | ये दोनों यूँ तो जुड़वां बहने हैं लेकिन संस्कृति फिटनेस फ्रिक थी तो अब तक तंदुरूस्त है | ये बात ओर है की आज संस्कृति का ये मुस्कुलेर जिस्म मज़हब और जाति जैसे ज़हरीले स्टेरॉयड लेकर बना है | संस्कृत को अब खून की उल्टियाँ हो रही हैं वह शायद "कालिदास और दारा शिकोह" को याद कर रही है |

मैंने कुछ सज्जनों को कबीर के  दोहे , "जाति ना पूछो साधू की" , का हवाला दिया तो मुझे तर्क दिया गया की इसमें सिर्फ जाति की बात हुई  है धर्म की नहीं | हाँ शायद यही वजह थी की कबीर शायद दो मजहबों के बीच लटक कर रह गया | मैं नि:शब्द हूँ वैसे ही जैसे कबीर था |

खैर मुझ जैसे जातिवादी आदमी की कलम से ये शब्द नहीं सुहाते , हाँ इतना जरूर कहूँगा की संस्कृत छटपटा रही है | जिस भाषा पर सिर्फ हिन्दू हक जताते हैं वो इस देश की ०.००2 % जनता द्वारा बोली जाती है | कुछ ऐसा ही हाल उर्दू का है बस उसका कैंसर 1st स्टेज का है | देश की 4.3 % जनता उर्दू बोलती है | देश में 196 बोलियां विलुप्ति के कगार पर हैं |

जो लोग फ़िरोज़ खान के खिलाफ पंडित मदन मोहन मालवीय का हवाला देते हैं वो jio का मुफ्त वाला इन्टरनेट इस्तेमाल करके काशी विश्व विद्यालय की वेबसाइट जरुर देखें ||

Sunday, 15 September 2019

सभ्यताओं का इतिहास

फिर धुआँ निकल रहा है
जल रही हैं कारखानों से सटी बस्तियां
संग चिताएं भी
आओ ,
देखो सब मिलकर
जलती सभ्यताओं को ,बनते इतिहास को
तालियाँ पीटकर हँसते काल  को

राख पर बना,
ये लहूलुहान इतिहास भी जलेगा
फिर बनेगा
फिर जलेगा , बनेगा
सिर्फ काल होगा
और हाँ !! चीखें भी
शाश्वत ||

(2017)

Saturday, 16 March 2019

कालाधन

वो देखो काला धन जा रहा है , पकड़ो-पकड़ो , दबोचो | मेरे कानो में ज्यों ही ये शब्द पड़े, मैं जोर से उछल पड़ा |
मुझमे ऐसे  जोश और स्फूर्ति का संचार हुआ कि एक पल को मुझे लगा कि मैं सारा कालाधन पकड़ कर "56" तालों वाली सरकारी अलमारी में डाल दूंगा | ऊपर से आदरणीय सजग चौकीदार साहब 56 इंच की छाती लिए हुए पहरा दे रहे होंगे |

मैं अपने दुर्बल पैरों से बहुत तेज दौड़ा , इतना तेज  , जितना तेज  हनुमान जी संजीवन बूटी लाते वक्त उड़ नहीं पाए थे | मेरे ऊपर से रफाले भी इसी होड़ में उड़ रहा था | बेचारा मिग एक बार फिर से धरती पर आ गिरा |
मेरे साथ अनगिनत बेरोजगारों की  भीड़ भी दौड़ रही थी |पकोड़े बेचने वाले कुछ उद्यमी भी नई उम्मीदों के चक्कर में मेरे साथ हो लिए थे | कुल मिलाकर भीड़ इस बार ATM पर लगी लाइनों से ज्यादा थी |

मेरा हाथ ज्यों ही कालेधन के बोरे पर पड़ता है बोरा अचानक फट पड़ता है | धमाका इतना तेज था कि मैं भरे बाजार नंगा हो गया , बाकी जो इर्द-गिर्द थे उन पर  कालिख पुत गयी | विपक्ष दौड़ने में इतना धीमा था की धमाके का असर उन तक पहुंचा ही नहीं ,उनके कुर्ते आज भी सफ़ेद हैं | उन्हें तो ये वहम भी है कि कालेधन का बोरा अब तक भाग रहा है और वे उसे एक दिन दबोच लेंगे |

P.S >>  दौड़ने से पहले मैंने पतंजलि च्यवनप्राश खाया था और 2-4 चुनावी रेलियों में नारे भी लगाये थे |

Saturday, 9 February 2019

यार


मेरी आँखों की रोशनी जा रही है
कोई चराग़ तो जलाओ
मेरे कुछ यार खो गए हैं इस मेले में
जरा कोई आवाज तो लगाओ ।।

वो मरे नही हैं
वो बहरे भी नही हैं
डूब जाएं मेरे यार कहीं
सागर इतने गहरे भी नही हैं।।

Tuesday, 8 January 2019

बागी जुगनू

      मैं जुगनुओं कि बस्ती ढूंढ रहा हूँ
      वो जुगनू ,
      जो मुर्दा रात में चराग लाते थे
      रातों की चिता जला सवेरे तक लौट जाते थे
      मैं उन जुगनुओं की बस्ती ढूंढॅ रहा हूँ |

      जब से सरकारी केबल आयी है
      वो सब बागी हो गये हैं
      मैंने चम्बल छान मारी
      सुना है वो नुमाइंदों सरीके दागी हो गये हैं
      कुछ कहते हैं जबसे मैंने गाँव छोड़ा है
       उस बस्ती में आग लगा दी
      कुछ जो थे उजाले की ओट में बचे
      उन पर राजद्रोह की छाप लगा दी

      यक़ीनन वो लौट आयेंगे
      रातें फिर इतनी काली ना होंगी
       बस्तियां फिर कभी खाली ना होंगी

       उनके आने पर ,
       देखो तुम कोई दीप ना जलना
       वो अवधेश नहीं , ना सही
       वो विशेष नहीं , ना सही
      उनके पिछवाडों का मगर मखौल  ना उडाना