पिरभू काका
पथरीले रास्ते पर साईकिल चलाते हुए तल्लीनता से अपनी अगली कहानी के बारे सोच रहा था |अभी कोई डेढ़ कोस दूर था वह गाँव जहाँ मुझे अपनी कहानी मिलने की उम्मीद थी |तल्लीनता टूटी गिरते-गिरते बचा था |कील घुसी थी ,अगले चक्के में |यहाँ से मुझे पैर घसीटने थे |
गाँव पहुँचते दोपहर हो चुके थे |जेठ की गरमी ,तपती धरती ,दोनों तरफ कच्चे ,भूसे से बने मकान ,कभी-कभी किसी घर से बच्चे को डांटने की आवाज सन्नाटे में गूंज पड़ती थी |
दूर कुछ बच्चे गुल्ली-डंडा खेल रहे थे |माथे के पसीने को कमीज से पोंछ कर गरमी को भूल जाते थे |मुझे अपनी तरफ आता देख सब खेलना छोड़ विस्मय से मुझे ताक रहे थे |मैंने पास जाकर पूंछा प्रभु काका को जानते हो ?
उपहास मिश्रित हंसी हँसकर ,एक दूसरे के कान में कुछ फुस-फुसियाकर दो बच्चों ने एक घर की तरफ इशारा किया |उस घर में रहता है पिल्भु (पिरभू )पंडित आपका काका |मुझे तुच्छ समझ बच्चे अपने खेल में लग गये |
भूसे व लकड़ियों से ढके घर में खाट पर जिन्दा मुर्दे से पिरभू काका लेटे थे |मुझे आता देख उठने की कोशिश की |
मैंने अपना परिचय दिया ,बताया मिश्र जी के कस्बे से आया हूँ |मिश्र ,नही जानते ? दामोदर मिश्र आपके पुराने दोस्त |
मिश्र जी से बहुत सुना था उनके स्वभाव के बारे में पुराने दिनों को याद करना आदत थी उनकी |
आदतन उन्होंने बोलना शुरू किया |बेटा ,लिखने का बहुत शौक था मुझे | लेखनी ही हमारी ज़िन्दगी थी| माँ-बाप के मना करने पर भी लिखता था |बगावत करने में जान बसती मेरी पर एक म्यान में एक ही तलवार आ सकती है सो भाग गया घर से |शहर में अपने गुजारे के साथ मैंने लेखन जारी रखा |चार बरस बीत गये ,गाँव की कमी मेरे लेखन में झलक रही थी |शहर में आने के बाद मनहूस लिखने लगा था ,बगावत की कल्पना भी अब सपना बन चुकी थी |पिता की डांट के बाद भी उनकी मर्जी के खिलाफ ,भोर के सूरज ,ढलती संध्या की उन्मुक्त हवा को महसूस कर लिखने का आनंद अब नही रहा था | लिखते वक्त माथा नफरत से भरा होता था |मुझे मेरी ही लेखनी चिढाने लगी थी ,अब लग रहा था मैं कलम का नही बल्कि कलम मेरी गुलाम बन चुकी थी | मेरी लेखनी मुझसे ही बगावत कर बैठी,मैंने ही लड़ना सिखाया था उसे|वो मेरी चंगुल से छूट, भाग खडी हुई |
मेरे घर से भागने के बाद घरवालों को हुई पीड़ा को मै अब जान सकता था |
एक शाम गाँव पहुंचा,एक छोटा बच्चा मासूम सी हंसी हँसते हुए बोला "पिल्बू दादा आपकी माँ मर गयी "आप नही थे ना तो मंगल दादा ने उन्हें आग दी थी ,पहला मौका था ,जब जिन्दगी ने मुझे मौत दिखाई थी "|
बात पूरी कर काका भावशून्य हो गये थे पर आँखों के नीचे पानी की दो बूंदे काफी-कुछ बयाँ कर रही थी |
पिरबू काका बहुत मजबूत कलेजे के थे ,मेरी कल्पना से कही परे उन्होंने कहना जारी रखा |
मेरी मनाही के बाद भी कुछ बरसों बाद पिता जी ने शादी कर दी |अब परीवार पालने का बोझ था हम पर |बच्चों को पूरी तरह अपने वश में रखने की कोशिश करता था |डरता था की कहीं वो मुझे ना दोहरा बैठे |कुछ समय बाद पिता जी भी चल बसे |अब बीवी-बच्चों का मोह ही मुझे इस दुनिया से जोड़े रख रहा था |
एसे ही सात-आठ बरस गुजर गये |एक रोज पुराने दिनों की यादें मुझे फिर से उस राह पर दखेलने लगी |मैं एसे ख्यालों से भी दूर रहना चाहता था ,लेकिन जिन्दगी मौत को साथ लिए मेरे पीछे थी |मैंने आत्मसंतुष्टि के लिए फिर से लिखना शुरू कर दिया| घर में किसी को शिकायत नही थी मेरे लिखने से |धीरे-धीरे नशा बढता गया |मैं फिर से आज़ाद हवाओं को महसूस करने लगा था |आसपास के गावों में रुतबा बढने लगा |हर अगले दिन किसी नए आदमी से मिलना ,नए-नए मित्र बनाना मेरा स्वभाव सा हो गया था |परोक्ष रूप से घर की जिम्मेदारी बीवी-बच्चों पर थी |आमदनी के नाम पर खेतों की पैदावार थी |एक-दो बार भागवान ने टका दो टका कमाने की सलाह भी दी पर मेरे ऊपर चढ़ा भूत उसे टाल गया |अब मुझे किसी का टोकना अच्छा नही लगता था |
मैं शायद फिर से उस राह पर चल पड़ा था ,जिसका गंतव्य दर्द था | 'प्यादे ते फर्जी भयो टेडो-टेडो जाय' अब चरितार्थ हो रही थी |मेरा जितना अपनों से कम हुआ उतना ही परायों से बढता गया |गाँव के लोग मेरे से बात करने से परहेज करते थे |मैं इन सब से दूर अपनी पुरानी नशेडी दुनिया में डूब गया था |
फिर महामारी आयी ,तांडव लेकर बच्चे-बुढ्ढे सब को एक लाठी से हांकती |मरीज़ को दस-बारह रोज ठण्ड लगती फिर मौत उसे अपने साथ ले जाती |शहर में उपचार संभव था ,ऊँची कीमतों पर | दोनों बच्चे व बीवी चपेट में आये थे |मैं तड़प रहा था पैसों के लिए ताकि उन्हें फिर से जिन्दगी दे सकूं पर कुछ ना कर सका |अपनी कृतियाँ एक-एक कर जलाता गया उनका मर्ज़ बढता गया ,फिर एक दिन वो भी सो गये मौत के आँचल में |
जिन्दगी ने मुझे मार दिया था ,एक बार फिर से |
काका कहे जा रहे थे ...
अब तो फिर से बचपन लौट आया है ,जिन्दगी के हाथों कई बार मरने के बाद,जानता ही नही मौत क्या है ,डर क्या है ?मर तो मैं पहले ही चुका था अब तो बस इन्तजार है उसका जिसको मैं पहचानता ही नही,लोग उसे मौत कहते हैं !!
मैं बाहर निकला ,देखा संध्या हो चुकी है |हवा में अजीब सी स्वच्छंद खुशबु है |लोग अपने घरों को लौट रहे हैं |सुदूर पिरबू काका लौटते दिख रहे हैं ,आज से कोई चालीस साल पहले ,जिन्दगी के हाथों मरने |
पथरीले रास्ते पर साईकिल चलाते हुए तल्लीनता से अपनी अगली कहानी के बारे सोच रहा था |अभी कोई डेढ़ कोस दूर था वह गाँव जहाँ मुझे अपनी कहानी मिलने की उम्मीद थी |तल्लीनता टूटी गिरते-गिरते बचा था |कील घुसी थी ,अगले चक्के में |यहाँ से मुझे पैर घसीटने थे |
गाँव पहुँचते दोपहर हो चुके थे |जेठ की गरमी ,तपती धरती ,दोनों तरफ कच्चे ,भूसे से बने मकान ,कभी-कभी किसी घर से बच्चे को डांटने की आवाज सन्नाटे में गूंज पड़ती थी |
दूर कुछ बच्चे गुल्ली-डंडा खेल रहे थे |माथे के पसीने को कमीज से पोंछ कर गरमी को भूल जाते थे |मुझे अपनी तरफ आता देख सब खेलना छोड़ विस्मय से मुझे ताक रहे थे |मैंने पास जाकर पूंछा प्रभु काका को जानते हो ?
उपहास मिश्रित हंसी हँसकर ,एक दूसरे के कान में कुछ फुस-फुसियाकर दो बच्चों ने एक घर की तरफ इशारा किया |उस घर में रहता है पिल्भु (पिरभू )पंडित आपका काका |मुझे तुच्छ समझ बच्चे अपने खेल में लग गये |
भूसे व लकड़ियों से ढके घर में खाट पर जिन्दा मुर्दे से पिरभू काका लेटे थे |मुझे आता देख उठने की कोशिश की |
मैंने अपना परिचय दिया ,बताया मिश्र जी के कस्बे से आया हूँ |मिश्र ,नही जानते ? दामोदर मिश्र आपके पुराने दोस्त |
मिश्र जी से बहुत सुना था उनके स्वभाव के बारे में पुराने दिनों को याद करना आदत थी उनकी |
आदतन उन्होंने बोलना शुरू किया |बेटा ,लिखने का बहुत शौक था मुझे | लेखनी ही हमारी ज़िन्दगी थी| माँ-बाप के मना करने पर भी लिखता था |बगावत करने में जान बसती मेरी पर एक म्यान में एक ही तलवार आ सकती है सो भाग गया घर से |शहर में अपने गुजारे के साथ मैंने लेखन जारी रखा |चार बरस बीत गये ,गाँव की कमी मेरे लेखन में झलक रही थी |शहर में आने के बाद मनहूस लिखने लगा था ,बगावत की कल्पना भी अब सपना बन चुकी थी |पिता की डांट के बाद भी उनकी मर्जी के खिलाफ ,भोर के सूरज ,ढलती संध्या की उन्मुक्त हवा को महसूस कर लिखने का आनंद अब नही रहा था | लिखते वक्त माथा नफरत से भरा होता था |मुझे मेरी ही लेखनी चिढाने लगी थी ,अब लग रहा था मैं कलम का नही बल्कि कलम मेरी गुलाम बन चुकी थी | मेरी लेखनी मुझसे ही बगावत कर बैठी,मैंने ही लड़ना सिखाया था उसे|वो मेरी चंगुल से छूट, भाग खडी हुई |
मेरे घर से भागने के बाद घरवालों को हुई पीड़ा को मै अब जान सकता था |
एक शाम गाँव पहुंचा,एक छोटा बच्चा मासूम सी हंसी हँसते हुए बोला "पिल्बू दादा आपकी माँ मर गयी "आप नही थे ना तो मंगल दादा ने उन्हें आग दी थी ,पहला मौका था ,जब जिन्दगी ने मुझे मौत दिखाई थी "|
बात पूरी कर काका भावशून्य हो गये थे पर आँखों के नीचे पानी की दो बूंदे काफी-कुछ बयाँ कर रही थी |
पिरबू काका बहुत मजबूत कलेजे के थे ,मेरी कल्पना से कही परे उन्होंने कहना जारी रखा |
मेरी मनाही के बाद भी कुछ बरसों बाद पिता जी ने शादी कर दी |अब परीवार पालने का बोझ था हम पर |बच्चों को पूरी तरह अपने वश में रखने की कोशिश करता था |डरता था की कहीं वो मुझे ना दोहरा बैठे |कुछ समय बाद पिता जी भी चल बसे |अब बीवी-बच्चों का मोह ही मुझे इस दुनिया से जोड़े रख रहा था |
एसे ही सात-आठ बरस गुजर गये |एक रोज पुराने दिनों की यादें मुझे फिर से उस राह पर दखेलने लगी |मैं एसे ख्यालों से भी दूर रहना चाहता था ,लेकिन जिन्दगी मौत को साथ लिए मेरे पीछे थी |मैंने आत्मसंतुष्टि के लिए फिर से लिखना शुरू कर दिया| घर में किसी को शिकायत नही थी मेरे लिखने से |धीरे-धीरे नशा बढता गया |मैं फिर से आज़ाद हवाओं को महसूस करने लगा था |आसपास के गावों में रुतबा बढने लगा |हर अगले दिन किसी नए आदमी से मिलना ,नए-नए मित्र बनाना मेरा स्वभाव सा हो गया था |परोक्ष रूप से घर की जिम्मेदारी बीवी-बच्चों पर थी |आमदनी के नाम पर खेतों की पैदावार थी |एक-दो बार भागवान ने टका दो टका कमाने की सलाह भी दी पर मेरे ऊपर चढ़ा भूत उसे टाल गया |अब मुझे किसी का टोकना अच्छा नही लगता था |
मैं शायद फिर से उस राह पर चल पड़ा था ,जिसका गंतव्य दर्द था | 'प्यादे ते फर्जी भयो टेडो-टेडो जाय' अब चरितार्थ हो रही थी |मेरा जितना अपनों से कम हुआ उतना ही परायों से बढता गया |गाँव के लोग मेरे से बात करने से परहेज करते थे |मैं इन सब से दूर अपनी पुरानी नशेडी दुनिया में डूब गया था |
फिर महामारी आयी ,तांडव लेकर बच्चे-बुढ्ढे सब को एक लाठी से हांकती |मरीज़ को दस-बारह रोज ठण्ड लगती फिर मौत उसे अपने साथ ले जाती |शहर में उपचार संभव था ,ऊँची कीमतों पर | दोनों बच्चे व बीवी चपेट में आये थे |मैं तड़प रहा था पैसों के लिए ताकि उन्हें फिर से जिन्दगी दे सकूं पर कुछ ना कर सका |अपनी कृतियाँ एक-एक कर जलाता गया उनका मर्ज़ बढता गया ,फिर एक दिन वो भी सो गये मौत के आँचल में |
जिन्दगी ने मुझे मार दिया था ,एक बार फिर से |
काका कहे जा रहे थे ...
अब तो फिर से बचपन लौट आया है ,जिन्दगी के हाथों कई बार मरने के बाद,जानता ही नही मौत क्या है ,डर क्या है ?मर तो मैं पहले ही चुका था अब तो बस इन्तजार है उसका जिसको मैं पहचानता ही नही,लोग उसे मौत कहते हैं !!
मैं बाहर निकला ,देखा संध्या हो चुकी है |हवा में अजीब सी स्वच्छंद खुशबु है |लोग अपने घरों को लौट रहे हैं |सुदूर पिरबू काका लौटते दिख रहे हैं ,आज से कोई चालीस साल पहले ,जिन्दगी के हाथों मरने |
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