Friday, 16 March 2018

विचारों के द्वन्द में
कलम घुमाता हूँ
कुछ कल के
और
कुछ कल के
बेसुरे गीत गुनगुनाता हूँ
बंजर रेगिस्तान से
मुहब्बत कर बैठता हूँ
फिर प्यास से छटपटाता हूँ
मारा जाता हूँ
फिर जीवंत हो जाता हूँ
पी रक्त अपना
स्वयंभू हो जाता हूँ
निर्जल मरुधर में
लहरें आती है 
ठीक वैसी ही ,
जैसी सागर पर तैरती हैं
भव भयानक
फिर नूतन हो जाता है
अमावस की काली रात के बाद
जैसा सवेरा हो जाता है 

Thursday, 8 March 2018

मेरी कविताओं के कुछ अंश वहाँ बिखेर देना
चुप्पी सी गुलामी घर किये बैठी है
बदलाव के कुछ अक्षर उन माथों पर उकेर देना ||

जो आदर्शों का दास था
कुछ वैसा ,
जैसा श्रीराम का वनवास था
रोशनदान उस अँधेरे में एक खोल आना
बहरी भीड़ में भी ,
मेरी कविताओं के कुछ अंश बोल आना ||

बदलाव कि स्वभाविकता बदली जाए
तर्कों के तरकश भरे जाएं
महाभारत के समर में ,
कौरव-पांडव दोनों पराजित हों
जय हो उनकी भी ,
जो थे एकलव्य , तुम्हे विदित हो ?

कर्जदार-किसानो की हड्डियों पर खड़े
पूंजीवाद के कारखानों की नीव उखाड़ देना
मरा अगर ख़ुदा किसी रोज
मेरी कविताओं के कुछ बीज कब्र पर बिखेर देना ||