Saturday, 6 September 2014

समाज बनाम सलाखें


 
         एक रोज सपने में, हम बड़े  आदमी बन गए |
       ज़ोश में जज्बाती हो कुछ भूल कर गए |

         ज्यादा कुछ नहीं,
      महिला सुरक्षा पर  समाज को ज़िम्मेदार ठहरा दिया |
       हम मुख्य समाचारों में छपे थे ,
      आलोचकों ,मीडिया के पौ बारह थे |

       सुना सामाजिक क्रांति होगी ,
           हमारे पाप की सजा मौत से भी बड़ी होगी  |
   
        कामगार काम छोड़ सड़क पर उतर आये |
     लालबत्ती में बैठे महाशय हाथ हिला कर चले गए |

     मंत्री जी की नसीहत मिली ...
   तुम्हे बोलने की तमीज नहीं ,
         औकात क्या है तुम्हारी |
    जितना हमारा कच्छा , उतनी तुम्हारी कमीज नहीं |

    बाज़ार बंद हुए ,जाम लगे ,एम्बुलेंस अटकी ,
     दंगे फिर बलात्कार  भी हुए |
   हम सलाखों के अन्दर हुए |

    पर सलाखें मजबूत थी ,
       समाज से ........|

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