एक रोज सपने में, हम बड़े आदमी बन गए |
ज़ोश में जज्बाती हो कुछ भूल कर गए |
ज्यादा कुछ नहीं,
महिला सुरक्षा पर समाज को ज़िम्मेदार ठहरा दिया |
हम मुख्य समाचारों में छपे थे ,
आलोचकों ,मीडिया के पौ बारह थे |
सुना सामाजिक क्रांति होगी ,
हमारे पाप की सजा मौत से भी बड़ी होगी |
कामगार काम छोड़ सड़क पर उतर आये |
लालबत्ती में बैठे महाशय हाथ हिला कर चले गए |
मंत्री जी की नसीहत मिली ...
तुम्हे बोलने की तमीज नहीं ,
औकात क्या है तुम्हारी |
जितना हमारा कच्छा , उतनी तुम्हारी कमीज नहीं |
बाज़ार बंद हुए ,जाम लगे ,एम्बुलेंस अटकी ,
दंगे फिर बलात्कार भी हुए |
हम सलाखों के अन्दर हुए |
पर सलाखें मजबूत थी ,
समाज से ........|
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