Tuesday, 19 December 2017

अभी-अभी जो गुजरा है !
जो नि:शक्त सा था !
हाँ-हाँ ,
वही तो वक्त था |

पहले बहुत बड़ा सा
हाथी जैसा ,
बेडौल हुआ करता था |
पूरब से पश्चिम तक सूरज संग चला करता था |
अब बहुत बदला सा लगता है ?
घड़ियों में बंध गया है ,
तीन सुइयों में बंट गया है
बेशक वक्त बहुत बदल गया है |

नुक्कड़ पर जो इकलोती बत्ति जलती है
जलती है , बुझती है
धुंधली भी हो गयी है ,
ठीक वैसे ही जैसा वक्त हो गया है !
काला-कलूटा ,
भूतों से भी भयावह
पत्थरों से सख्त है
हाँ-हाँ
वही तो वक्त है !




मुझमे और ख़ुदा में अंतर क्या है ?
दरिया ग़र रोक दूं , समन्दर क्या है ?
नशा ना हो जाम में , मयखाने क्या हैं ?
पलट कर हमे भी देख मल्लिका-ए-हुस्न
नजरें ग़र ना हों , नजराने क्या हैं ?

Monday, 11 December 2017

तपती रेत से सन कर ,
कांटों , बीहड़ों ,शिखरों से छानकर
हवा मुझ तक पहुंचती है
और उग्र हो जाती है ,
व्याकुल व्याघ्र सी हो जाती है |

वह कहती है ..
मुहाजिर मुल्क मांगते हैं
हिन्दू मांगते हैं वतन
सरहद पर लगी आग में ,
अनायास ही जलता है मेरा बदन ?

हवा हूँ , फिर कहे देती हूँ
 वह आग यहाँ तक ले आऊँगी
संग अनुज तुम्हारा भी जलाऊँगी
सत्तातख़्त पलट फिर तुम नाचोगे
जल गये एक बार जो ,
फिर राख भला क्या बांटोगे ?

इतना कह पवन कुछ धीमी हो गई
सतह धरा की आँसुओ से गीली हो गई

चलती हूँ ..
हिमगिरि से आलिंगन कर आती हूँ
ख़त अगर हो कोई ,
भागीरथी तक दे  आती हूँ  |

हाँ , कुछ कलमे सहेज रखी हैं
कुछ गद्दारों को बेच रखी हैं

नहीं , ऐसा ना हो पाएगा
ख़त गुनाहों का
गंगा में ना धुल  पाएगा |

क्यों ?
ऐसा भला क्या अनर्थ हुआ ?
जो किये गुनाह ,
क्या सब व्यर्थ हुआ ?

हाँ ,
बूढी गंगा ठीक से ना अब चल पाती है
लौटते वक्त खून के कतरे मुझ तक उछाल दिया करती है |