Friday, 12 June 2015

                 मुजरिम

     अब भी ज़िन्दा है ,
मुजरिम जो तूने पाला था
दीवारों तक ने सुनी थी उसकी चीखें ,
तेरे कानो के पार जाने को काफी नही ??
उसका स्वाभिमान मारा था ,
 तेरे दंभ ने |
मुजरिम पाला था तूने,
अपराध से बचने को |
दरारें दीवारों की आज भी बयां करती हैं ,
पीड़ा की गहराई |
वज्र से बना है तू ??
तो रोयेगा आज दधिची |
 दूर किसी बस्ती में ,
शहर के बीच , तेरे पुण्य के पीछे
आज भी जिन्दा है ,
मुजरिम जो तूने  पाला था |