Friday, 22 January 2016

पहर



                                                                                   

ट्रेन पटरियों पर दौड़ रही है | छुक-छुक की आवाज सुनकर बौरा गया हूँ | थोड़ी देर में ही ये आवाज कर्णप्रिय हो जाती है | एक सपना माथे में भोर के सूरज की तरह निकलता है | सूरज की किरने ओंस की धवल बूंदों को सुनहरी बनाकर मिट्टी से लिपे हुए चौक पर गिर रही हैं | चौक से कुछ दूर कुछ अनपढ़ बुजुर्ग अख़बार के पन्ने पलट रहे थे | पन्नो पर उकेरे हुए चित्रों को देखकर ख़बरों का अनुमान लगा रहे हैं | एकमत ना होने पर कभी-कभी झगड पड़ते हैं |
धीरे-धीरे सूरज चढ़ रहा है |
संध्या हो चुकी है | गोधुली वेला में गायें घर लौट रहीं हैं | उनके पैरों से उडती धूल डूबते सूरज को और भी धुंधला बना देती है |खेत की मेड पर खड़ा होकर बच्चा हर बार दोगुने उत्साह से पतंग की डोर खींच रहा है , आने वाली रात से बेखबर |
छुक-छुक की आवाज बंद हो गयी हैं | हॉर्न बजता है , ट्रेन फिर से चल पड़ी है | मन पीछे भाग रहा है ट्रेन से दोगुना तेज | हाथ कलम लेकर कागज पर चलता है उस से भी तेज और दोपहर गायब है , नीरसता की तरह !

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